महाभारत सभा पर्व अध्याय 17 श्लोक 26-39

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सप्तदश (17) अध्‍याय: सभा पर्व (राजसूयारम्भ पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: सप्तदश अध्याय: श्लोक 26-39 का हिन्दी अनुवाद

राजा ने कहा- भगवान् ! मैं तो अब राज्य छोड़कर तपोवन की ओर चल पड़ा हूँ । मुझ अभागे और संतानहीन को वर अथवा राज्य की क्या आवश्यकता ?

श्रीकृष्ण कहते हैं- राजा का यह कातर वचन सुनकर मुनि की इन्द्रियाँ क्षुब्ध हो गयीं (उनका हृदय पिघल गया) । तब वे ध्यानस्थ हो गये और उसी आम्रवृक्ष की छाया में बैठे रहे। उसी समय वहाँ बैठे हुए मुनि की गोद में एक आम का फल गिरा । वह न हवा के चलने से गिरा था, न किसी तोते ने ही उस फल में अपनी चोंच गड़ायी थी। मुनि श्रेष्ठ चण्डकौशिक ने उस अनुपम फल को हाथ में ले लिया और उसे मन-ही-मन अभिमन्त्रित करके पुत्र की प्राप्ति कराने के लिये राजा को दे दिया। तत्पश्चात् उन महाज्ञानी महामुनि ने राजा से कहा- ‘राजन् !तुम्हारा मनोरथ पूर्ण हो गया । नरेश्वर ! अब तुम अपनी राजधानी को लौट जाओ। ‘महाराज ! यह फल तुम्हें पुत्र प्राप्ति करायेगा, अब तुम वन में जाकर तपस्या न करो; धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करो । यही राजाओं का धर्म है। ‘नाना प्रकार के यज्ञों द्वारा भगवान् का यजन करो और देवराज इन्द्र को सोमरस से तृप्त करो । फिर पुत्र को राज्य सिंहासन पर बिठाकर वानप्रस्थाश्रम में आ जाना । ‘भूपाल ! मैं तुम्हारे पुत्र के लिये आठ वर देता हूँ- वह ब्राह्मण भक्त होगा, युद्ध में अजेय होगा, उसकी युद्ध विषयक रूचि कभी कम न होगी, । ‘वह अतिथियों का प्रेमी होगा, दीन-दुखियों पर उसकी सदा कृपा-दृष्टि बनी रहेगी, उस का बल महान् होगा, लोक में उसकी अक्षय कीर्ति का विस्तार होगा और प्रजाजनों पर उसका सदा स्नेह बना रहेगा ।’ इस प्रकार चण्डकौशिक मुनि ने उसके लिये ये आठ वर दिये ।। मुनि का यह वचन सुनकर उन परम बुद्धिमान् राजा बृहद्रथ ने उनके दोनों चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम किया और अपने घर को लौट गये। भरत श्रेष्ठ ! उन उत्तम नरेश ने उचित काल का विचार करके दोनों पत्नियों के लिये वह एक फल दे दिया। उन दोनों शुभस्वरूपा रानियों ने उस आम के दो टुकड़े करके एक-एक टुकड़ा खा लिया । होने वाली बात होकर ही रहती है, इसलिये तथा मुनि की सत्यवादिता के प्रभाव से वह फल खाने के कारण दोनों रानियों के गर्भ रह गये । उन्हें गर्भवती हुई देखकर राजा को बड़ी प्रसन्नता हुई। महाप्राज्ञ युधिष्ठिर ! प्रसवकाल पूर्ण होने पर उन दोनों रानियों ने यथासमय अपने गर्भ से शरीर का एक-एक टुकड़ा पैदा किया। प्रत्येक टुकड़े में एक आँख, एक हाथ, एक पैर, आध पेट, आधा मुँह और कटि के नीचे का आधा भाग था । एक शरीर के उन टुकड़ों को देखकर वे दोनों भय के मारे थर-थर काँपने लगीं। उनका हृदय उद्विग्न हो उठा; अबला ही तो थीं । उन दोनों बहिनों ने अत्यन्त दुखी होकर परस्पर सलाह करके उन दोनों टुकड़ों को, जिन में जीव तथा प्राण विद्यमान थे, त्याग दिया। उन दोनों की धायें गर्भ के उन टुकड़ों को कपड़े से ढककर अन्तःपुर के दरवारजे से बाहर निकलीं और चौराहे पर फेंक कर चलीं गयीं। पुरूष सिंह ! चौराहे पर फेंके हुए उन टुकड़ों को रक्त और मांस खाने वाले जरा नाम की एक राक्षसी ने उठा लिया



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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