महाभारत सभा पर्व अध्याय 17 श्लोक 40-52
सप्तदश (17) अध्याय: सभा पर्व (राजसूयारम्भ पर्व)
विधाता के विधान से प्रेरित होकर उस राक्षसी ने उन दोनों टुकड़ों को सुविधापूर्वक ले जाने योग्य बनाने की इच्छा से उस समय जोड़ दिया। नरश्रेष्ठ ! उन टुकड़ों का परस्पर संयोग होते ही एक शरीरधारी वीर कुमार बन गया। राजन् ! यह देखकर राक्षसी के नेत्र आश्चर्य से खिल उठे । उसे वह शिशु वज्र के सारतत्त्व का बना जान पड़ा । राक्षसी उसे उठाकर ले जाने में असमर्थ हो गयी। उस बालक ने अपने लाल हथेली वाले हाथों की मुट्ठी बाँधकर मुँह में डाल ली और अत्यन्त क्रुद्ध होकर जल से भरे मेघ की भाँति गम्भीर स्वर से रोना शुरू कर दिया। परंतप नरव्याघ्र ! बालक के उस रोने -चिल्लाने के शब्द से रनिवास की सब स्त्रियाँ घबरा उठीं तथा राजा के साथ सहसा बाहर निकलीं। दूध से भरे हुए स्तनों वाली वे दोनों अबला रानियाँ भी, जो पुत्र प्राप्ति की आशा छोड़ चुकीं थीं, मलिन मुख हो सहसा बाहर निकल आयीं। उन दोनों रानियों को उस प्रकार उदास, राजा को संतान पाने के लिये उत्सुक तथा उस बालक को अत्यन्त बलवान् देखकर राक्षसी ने सोचा, ‘मैं इस राजा के राज्य में रहती हूँ । यह पुत्र की इच्छा रखता है; अतः इस धर्मात्मा तथा महात्मा नरेश के बालक पुत्र की हत्या करना मेरे लिये उचित नहीं है’। ऐसा विचार कर उस राक्षसी ने मानवी का रूप धारण किया और जैसे मेघमाला सूर्य को धारण करे, उसी प्रकार वह उस बालक को गोद में उठाकर भूपाल से बोली।
राक्षसी ने कहा - बृहद्रथ ! यह तुम्हारा पुत्र है, जिसे मैंने तुम्हें दिया है । तुम इसे ग्रहण करो । ब्रह्मर्षि के वरदान एवं आशीर्वाद से तुम्हारी दोनों पत्नियों के गर्भ से इसका जन्म हुआ है। धायों ने इसे घर के बाहर लाकर डाल दिया था; किंतु मैंने इस की रक्षा की है।
श्रीकृष्ण कहते हैं- भरत कुलभूषण ! तब काशिराज की उन दोनों शुभलक्ष्णा कन्याओं उस बालक को तुरंत गोद में लेकर उसे स्तनों के दूध से सींच दिया। यह सब देख-सुनकर राजा के हर्ष की सीमा न रही । उन्होनें सुवर्ण की-सी कान्ति वाली उस रक्षासी से, जो स्वरूप से राक्षसी नहीं जान पड़ती थी, इस प्रकार पूछा।
राजा ने कहा - कमल के भीतरी भाग के समान मनोहर कान्ति वाली कल्याणी ! मुझे पुत्र प्रदान करने वाली तुम कौन हो ? बताओ। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि तुम इच्छानुसार विचरने वाली कोई देवी हो।
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