महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 19
अष्टात्रिंश (38) अध्याय: सभा पर्व (अर्घाभिहरण पर्व)
उन दोनों की मुखच्छवि बड़ी मनोहारिणी थी। वे वन में जाकर श्रवण सुखद पर्णवाद्य (पत्तों के बाजे पिपिहरी आदि) बजाया करते थे। वहां दो तरुण नागकुमारों की भाँति उन दोनों की बड़ी शोभा होती थी। वे अपने कानों में मोर के पंख लगा लेते, मस्तक पर पल्लवों के मुकुट धारण करते और गले में वनमाला डाल लेते थे। उस समय शाल के नये पौधों की भाँति उन दोनों की बड़ी शोभा होती थी। वे कभी कमल के फूलों के शिरोभूषण धारण करते और कभी बछड़ों की रस्सियों को यज्ञापवीत की भाँति धारण कर लेते थे। वीरवर श्रीकृष्ण और बलराम छींके और तुम्बी लिये वन में घूमते और गोपजनोचित वेणु बजाया करते थे। वे दोनों भाई कहीं ठहर जाते, कहीं वन में एक दूसरे के साथ खेलने लगते और कहीं शय्या बिछाकर सो जाते तथा नींद लेने लगते थे। राजन्! इस प्रकार के मंगलमय बलराम और श्रीकृष्ण बछड़ों की रक्षा करते तथा उस महान् वन की शोभा बढ़ाते हुए सब ओर घूमते और भाँति-भाँति की क्रीड़ाएँ करते थे। कुन्तीनन्दन! तदनन्तर वे दोनों वसुदेव पुत्र वृन्दावन में जाकर गौएँ चराते हुए लीला विहार करने लगे।
- कालिय मर्दन एवं धेनुकासुर, अरिष्टासुर और कंस आदि का वध, श्रीकृष्ण और बलराम का विद्याभ्यास तथा गुरु दक्षिणा रूप से गुरु जी को उनके मरे हुए पुत्र को जीवित करके देना
भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर! तदनन्तर एक दिन मनोहर रूप और सुन्दर मुख वाले भगवान गोविन्द अपने बड़े भाई संकर्षण को साथ लिये बिना ही रमणीय वृन्दावन में चले गये और वहाँ इधर-उधर भ्रमण करने लगे। उन्होंने काक पक्ष धारण कर रखा था। वे परम शोभायमान, श्याम वर्ण तथा कमल के समान सुन्दर नेत्रों से सुशोभित थे। जैसे चन्द्रमा कलंक से युक्त होकर शोभा पाता है, उसी प्रकार श्रीकृष्ण का वक्ष:स्थल श्रीवत्स चिह्न से शोभा पा रहा था। उन्होंने रस्सियों को यज्ञोपवीत की भाँति पहन रखा था। उनके श्रीअंगों पर पीताम्बर शोभा पा रहा था। विभिन अंगों में श्वेत चन्दन का अनुलेप किया गया था। उनके मस्तक पर काले-घुँघराले केश सुशोभित थे। सिर पर मोरपंख का मुकुट शोभा पाता था, जो मन्द-मन्द वायु के झोंकों से लहरा रहा था। भगवान कहीं गीत गाते, कहीं क्रीड़ा करते, कहीं नाचते और कहीं हँसते थे। इस प्रकार गोपालोचित वेष धारण किये मधुर गीत गाते और वेणु बजाते हुए तरुण श्रीकृष्ण गौओं को आनन्दित करने के लिये कभी-कभी वन में घूमते थे। अत्यन्त कान्तिमान् भगवान श्रीकृष्ण वर्षा के समय गोकुल में वहाँ के अतिशय रमणीय प्रदेशों तथा वनश्रेणियों में विचरण करते थे। भरतश्रेष्ठ! उन वनश्रेणियों में भाँति-भाँति के खेल करके श्यामसुन्दर बड़े प्रसन्न होते थे। एक दिन वे गौओं के साथ वन में घूम रहे थे। घूमते-घूमते महात्मा भगवान केशव ने भाण्डीर नामक वटवृख देखा और उसकी छाया में बैठने का विचार किया । निष्पाप युधिष्ठिर! वहां श्रीकृष्ण समान अवस्था वाले दूसरे गोप बालकों के साथ बछड़े चराते थे, दिनभर खेल कूद करते थे और पहले दिव्य धाम में जिस प्रकार वे आनन्दित होते थे, उसी प्रकार वन में आनन्दपूर्वक दिन बिताते थे। भाण्डीरवन में निवास करने वाले बहुत से ग्वाले वहाँ क्रीडा करते हुए श्रीकृष्ण को अच्छे-अच्छे खिलौनों द्वारा प्रसन्न रखते थे। दूसरे प्रसन्नचित्त रहने वाले गोप, जिन्हें वन में घूमना प्रिय था, सदा श्रीकृष्ण की महिमा का गान किया करते थे।
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