महाभारत सभा पर्व अध्याय 71 श्लोक 1-14
एकसप्ततितम (71) अध्याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)
कर्ण और दुर्योधन के वचन, भीम सेन की प्रतिज्ञा, विदुर की चेतावनी और द्रौपदी को धृतराष्ट्र से वर प्राप्ति
कर्ण बोला—भद्रे द्रौपदी ! दास, पुत्र और सदा पराधीन रहने वाली स्त्री—ये तीनों धन के स्वामी नहीं होते । जिसका पति अपने ऐश्वर्य से भ्रष्ट हो गया है, ऐसी निर्धन दास की पत्नी और दास का सारा धन—इन सब पर उस दास के स्वामी का ही अधिकार होता है। राजकुमारी ! अत: अब तुम राजा दुर्योधन के परिवार में जाकर सबकी सेवा करो। यही कार्य तुम्हारे लिये शेष बचा है, जिसके लिये तुम्हें यहाँ आदेश दिया जा रहा है । आज से धृतराष्ट्र के समस्त पुत्र ही तुम्हारे स्वामी हैं, कुन्ती के पुत्र नहीं। सुन्दरी अब तुम शीघ्र ही दूसरा पति चुन लो, जिससे द्यूतक्रीडा के द्वारा तुम्हें फिर किसी को दासी न बनना पडे़ । पतियों के प्रति इच्छानुसार बर्ताव तुम-जैसी स्त्री के लिये निन्दनीय नहीं है । दासीपन में तो स्त्री की स्वेच्छाचारिता प्रसिद्ध है ही, अत: यह दास्य भाव ही तुम्हें प्राप्त हो। यज्ञसेन कुमारी ! नकुल हार गये, भीमसेन, युधिष्ठिर, सहदेव तथा अर्जुन भी पराजित होकर दास बने गये । अब तुम दासी हो चुकी हो। वे हारे हुए पाण्डव अब तुम्हारे पति नहीं हैं। क्या कुन्तीकुमार युधिष्ठिर इस जीवन में पराक्रम और पुरूषार्थ की आवश्यकता नहीं समझते, जिन्होंने सभा में इस द्रपद राजकुमारी कृष्णो को दाँव पर लगाकर जूए का खेल किया ? वैशम्पायनजी कहते हैं—जनमेजय ! कर्ण की वह बात सुनकर अत्यन्त अमर्ष में भरे हुए भीमसेन बड़ी वेदना का अनुभव करते हुए उस समय जोर-जोर से अच्छ् वास लेने । वे राजा युधिष्ठिर के अनुगामी होकर धर्म के पाश में बँधे हुए थे । क्रोध से उनके नेत्र रक्तवर्ण हो रहे थे । वे युधिष्ठिर दग्ध करते हुए-से बोले। भीमसेनने कहा—राजन् ! मुझे सूत पुत्र कर्ण पर क्रोध नहीं आता । सचमुच ही दसधर्म वही है, जो उसने बताया है । महाराज ! यदि आप इस द्रौपदी को दाँव पर लगाकर जूआ न खेलते तो क्या ये शत्रु हम लोगों से ऐसी बातें कह सकते थे ? वैशम्पायनजी कहते हैं—भीमसेन का यह कथन सुनकर उस समय राजा दुर्योधन ने मौन एवं अचेत की सी दशा में बैठे हुए युधिष्ठिर से इस प्रकार कहा—‘नरेश ! भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव आपकी आज्ञा के अधीन हैं । आप ही द्रौपदी के प्रश्न पर कुछ बोलिये । क्या आप कृष्णा को हारी हुई नहीं मानते हैं ?’ कुन्तीकुमार युधिष्ठिर से ऐसा कहकर ऐश्वर्य से मोहित हुए दुर्योधन ने इशारे में राधानन्दन कर्ण को बढ़ावा देते और भीमसेन का तिरस्कार-सा करते हुए अपनी जाँघ का वस्त्र हटाकर द्रौपदी की ओर मुस्कराते हुए देखा। उसने केले के खंभे के समान मोटी, समस्त लक्षणों से सुशोभित, हाथी की सूँड के सहश चढ़ाव- उतारवाली और बज्र के समान कठोर अपनी बायीं जाँघ द्रौपदी- की दृष्टि के सामने करके दिखायी। उसे देखकर भीमसेन आँखें क्रोध से लाल हो गयीं । वे आँखें फाड़-फाड़कर देखते और सारी सभा को सुनाते हुए-से राजओं के बीच में बोले–‘दुर्योधन ! यदि महासभा में तेरी इस जाँघ को मैं अपनी गदा से तोड़ डालूँ तो मुझे भीमसेन को अपने पूर्वजों के साथ उन्हीं के समान पुण्य लोकों की प्राप्ति न हो’।
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