महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 15 श्लोक 1-17
पञ्चदश (15) अध्याय: सौप्तिक पर्व
वेदव्यासजी की आज्ञा से अर्जुन के द्वारा अपने अस्त्र का उपसंहार तथा अश्वत्थामा का अपनी मणि देकर पाण्डवों के गमों पर दिव्यास्त्र छोड़ना
वैशम्पायनजी कहते हैं–नरश्रेष्ठ ! उन अग्नि के समान तेजस्वी दोनों महर्षियों को देखते ही गाण्डीवधारी महारथी अर्जुन ने समयोचित कर्तव्य का विचार करके बड़ी फुर्ती से अपने दिव्यास्त्र का उपसंहार आरम्भ किया। भरतश्रेष्ठ ! उस समय उन्होंने हाथ जोड़कर उन दोनों महर्षियों से कहा– ‘मुनिवरों ! मैंने तो इसी उद्देश्य से यह अस्त्र छोड़ा था कि इसके द्वारा शत्रु का छोड़ा हुआ ब्रह्मशस्त्र शान्त हो जाय । अब इस उत्तम अस्त्र को लौटा लेने पर पापा–चारी अश्वत्थामा अपने अस्त्र के तेज से अवश्य ही हम सब लोगों को भस्म कर डालेगा। ‘आप दोनों देवता के तुल्य हैं; अत: इस समय जैसा करने से हमारा और सब लोगों का सर्वथा हित हो, उसी के लिए आप हमें सलाह दें’। ऐसा कहकर अर्जुन ने पुन: उस अस्त्र को पीछे लौटा लिया। युद्घ में उसे लौटा लेना देवताओं के लिये भी दुष्कर था । संग्राम में एक बार उस दिव्य अस्त्र को छोड़ देने पर पुन: उसे लौटा लेने में पाण्डु पुत्र अर्जुन के सिवा साक्षात् इन्द्र भी समर्थ नहीं थे। वह अस्त्र ब्रह्मतेज से प्रकट हुआ था । यदि अजितेनन्द्रिय पुरुष के द्वारा इसका प्रयोग किया गया हो तो उसके लिये इसे पुन: लौटाना असम्भव है; क्योंकि ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन किये बिना कोई इसे लौटा नहीं सकता। जिसने ब्रह्मचर्य का पालन नहीं किया हो, वह पुरुष यदि उसका एक बार प्रयोग करके उसे फिर लौटाने का प्रयत्न करे तो वह अस्त्र सगे–सम्बन्धियों सहित उसका सिर काट लेता था।
अर्जुन ने ब्रह्मचारी तथा व्रतधारी रहकर ही उस दुर्लभ अस्त्र को प्राप्त किया था । वे बडे़–से–बडे़ संक्कट में पड़ने पर भी कभी उस अस्त्र का प्रयोग नहीं करते थे। सत्यव्रतधारी, ब्रह्मचारी, शूरवीर पाण्डव अर्जुन गुरु की आज्ञा का पालन करने वाले थे; इसलिये उन्होंने फिर उस अस्त्र को लौटा लिया। अश्वत्थामा ने भी जब उन ॠषियों को अपने सामने खड़ा देखा तो उस घोर अस्त्र को बलपूर्वक लौटा लेने का प्रयत्न किया, किंतु वह उसमें सफल न हो सका। राजन् ! युद्ध में उस दिव्य अस्त्र का उपसंहार करने में समर्थ होने के कारण द्रोणकुमार मन ही मन बहुत दुखी हुआ और व्यासजी से इस प्रकार बोला–‘मुने ! मैंने भीमसेन के भय से भारी संकट में पड़कर अपने प्राणों को बचाने के लिये ही यह अस्त्र छोड़ा था। ‘भगवन् ! दुर्योधन के वध की इच्छा से इस भीम सेन ने संग्राम भूमि में मिथ्याचार का आश्रय लेकर महान् अधर्म किया था। ‘ब्रह्मन् ! यद्यपी मैं जितेन्द्रिय नहीं हॅू, तथापि मैंने इस अस्त्र का प्रयोग कर दिया है । अब पुन: इसे लौटा लेने की शक्ति मुझमें नहीं है। ‘मुने ! मैंने इस दुर्जय दिव्यास्त्र को अग्नि के तेज से युक्त एवं अभिमन्त्रित करके इस उद्देश्य से छोड़ा था कि पाण्डवों का नामों-निशान मिट जाय। ‘पाण्डवों के विनाश का संकल्प लेकर छोड़ा गया यह दिव्यास्त्र आज समस्त पाण्डु-पुत्रों को जीवन शून्य कर देगा।
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