महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 15 श्लोक 18-35

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पञ्चदश (15) अध्याय: सौप्तिक पर्व

महाभारत: सौप्तिक पर्व: पञ्चदश अध्याय: श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद

ब्रह्मन् ! मैंने मन में रोष भरकर रण भूमि में कुन्‍ती पुत्रों के बध की इच्‍छा से इस अस्त्र का प्रयोग करके अवश्‍य ही बड़ा भारी पाप किया है’। व्‍यासजी ने कहा– तात ! कुन्‍तीपुत्र धंनजय भी तो इस ब्रह्मास्त्र के ज्ञाता हैं; किंतु उन्‍होने रोष में भरकर युद्ध में तुम्‍हें मारने के लिये उसे नहीं छोड़ा है। देखो, रणभूमि में अपने अस्त्र को शान्‍त करने के उद्देश्‍य से ही अर्जुन ने उसका प्रयोग किया था और अब पुन: उसे लौटा लिया है। इस ब्रह्मास्त्र को पाकर भी महाबाहु अर्जुन तुम्‍हारे पिताजी का उपदेश मानकर कभी क्षात्रधर्म से विचलित नहीं हुए हैं। ये ऐसे धैर्यवान्, साधु, सम्‍पूर्ण अस्त्रों के ज्ञाता तथा सत्‍पुरुष हैं, तथापि तुम भाई–बन्‍धुओं सहित इनका वध करने की इच्‍छा क्‍यों रखते हो। जिस देश में एक ब्रह्मास्त्र को दूसरे उत्‍कृष्‍ट अस्त्र से दबा दिया जाता है, उस राष्‍ट्र में बारह वर्षों तक वर्षा नहीं होती है। इसीलिए प्रजावर्ग के हित की इच्‍छा से महाबाहु अर्जुन शक्तिशाली होते हुए भी तुम्‍हारे इस अस्त्र को नष्‍ट नहीं कर रहे हैं।
महाबाहो ! तुम्‍हें पाण्‍डवों की, अपनी और इस राष्‍ट्र की भी सदा रक्षा ही करनी चाहिए; इसलिए तुम अपने इस दिव्‍यास्त्र को लौटा लो। तुम्‍हारा रोष शान्‍त हो और पाण्‍डव स्‍वस्‍थ रहें । पाण्‍डुपुत्र राजर्षि युधिष्ठिर किसी को भी अधर्म से नहीं जीतना चाहते हैं। तुम्‍हारे सिर में जो मणि है, इसे आज इन्‍हें दे दो । इस मणि को ही लेकर पाण्‍डव बदले में तुम्‍हें प्राणदान देंगे। अश्र्वत्‍थामा बोला–पाण्‍डवों ने अबतक जो–जो रत्न प्राप्‍त किये हैं तथा कौरवों ने भी यहाँ जो धन पाया है, मेरी यह मणि उन सबसे अधिक मून्‍यवान् है। इसे बाँध लेने पर शस्त्र, व्‍याधि, झुधा, देवता, दानव अथवा नाग किसी से भी किसी तरह का भय नहीं रहता। न राक्षसों का भय रहता है ना चोरों का । मेरी इस मणि का ऐसा अद्भत प्रभाव है । इसलिये मुझे इसका त्‍याग तो किसी प्रकार नहीं करना चा‍हिये। परन्‍तु आप पूज्‍यपाद महर्षि मुझे पालन करना है, अत: यह रही मणि और यह रहा मैं । किन्‍तु यह दिव्‍यास्त्र से अभिमन्त्रित की हुई सींक तो पाण्‍डवों के गर्भस्‍थ शिशुओं पर गिरेगी ही; क्‍योंकि यह उत्तम अस्त्र अमोघ है ।
भगवान् ! इस उठे हुए अस्त्र को मैं पुन: लौटा लेने में असमर्थ हूँ। महामुने ! अत: यह अस्त्र मैं पाण्‍डवों के गर्भों पर ही छोड़ रहा हूँ । आपकी आज्ञाका मैं कदापि उल्‍लंघन नहीं करुंगा। व्‍यासजी ने कहा–अनघ ! अच्‍छा, ऐसा ही करो । अब अपने मन में दूसरा कोई विचार न लाना । इस अस्त्र को पाण्‍डवों के गर्भों पर हीं छोड़ कर शान्‍त हो जाओ। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- राजन् ! व्‍यासजी का यह वचन सुनकर द्रोणकुमार ने युद्ध में उठे हुए उस दिव्‍यास्त्र को पाण्‍डवों के गर्भों पर ही छोड़ दिया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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