श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 1 श्लोक 27-39

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तृतीय स्कन्ध: प्रथम अध्यायः (1)

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 27-39 का हिन्दी अनुवाद

प्रियवर! हम कुरुवंशियों के परम सुहृद् और पूज्य वसुदेवजी, जो पिता के समान उदारता पूर्वक अपनी कुन्ती आदि बहिनों को उनके स्वामियों का सन्तोष कराते हुए उनकी सभी मनचाही वस्तुएँ देते आये हैं, आनन्द पूर्वक हैं न ? प्यारे उद्धवजी! यादवों के सेनापति वीरवर प्रद्दुम्नजी तो प्रसन्न हैं न, जो पूर्वजन्म में कामदेव थे तथा जिन्हें देवी रुक्मिणीजी ने ब्राम्हणों की आराधना करके भगवान् से प्राप्त किया था। सात्वत, वृष्णि, भोज और दाशार्हवंशी यादवों के अधिपति महाराज उग्रसेन तो सुख से हैं न, जिन्होंने राज्य पाने की आशा का सर्वथा परित्याग कर दिया था किंतु कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण ने जिन्हें फिर से राजसिंहासन पर बैठाया। सौम्य! अपने पिता श्रीकृष्ण के समान समस्त रथियों में अग्रगण्य श्रीकृष्ण तनय साम्ब सकुशल तो हैं न ? ये पहले पार्वतीजी के द्वारा गर्भ में धारण किये हुए स्वामिकार्तिक हैं। अनेकों व्रत करके जाम्बवती ने इन्हें जन्म दिया था। जिन्होंने अर्जुन से रहस्ययुक्त धनुर्विद्या की शिक्षा पायी है, वे सात्यकि तो कुशलपूर्वक हैं ? वे भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा से अनायास ही भगवज्जनों की उस महान् स्थिति पर पहुँच गये हैं, जो बड़े-बड़े योगियों को भी दुर्लभ है। भगवान् के शरणागत निर्मल भक्त बुद्धिमान् अक्रूरजी भी प्रसन्न हैं न, जो श्रीकृष्ण के चरणचिन्हों से अंकित व्रज के के मार्ग की रज में प्रेम से अधीर होकर लोटने लगे थे ? भोजवंशी देवक की पुत्री देवकीजी अच्छी तरह हैं न, जो देवमाता अदिति के समान ही साक्षात् विष्णु भगवान् की माता हैं ? जैसे वेदत्रयी यज्ञ विस्तार रूप अर्थको अपने मन्त्रों में धारण किये रहती है, उसी प्रकार उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण को अपने गर्भ में धारण किया था।
आप भक्तजनों की कामनाएँ पूर्ण करने वाले भगवान् अनिरुद्धजी सुखपूर्वक हैं न, जिन्हें शास्त्र वेदों के आदिकारण और अन्तःकरण चतुष्टय के चौथे अंश मन के अधिष्ठाता बतलाते हैं[१] सौम्यस्वभाव उद्धवजी! अपने ह्रदयेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण का अनन्यभाव से अनुसरण करने वाले जो हृदीक, सत्यभामानन्दन चारूदेष्ण और गद आदि अन्य भगवान् के पुत्र हैं, वे सब भी कुशलपूर्वक हैं न ? महाराज युधिष्ठिर अपनी अर्जुन और श्रीकृष्ण-रूप दोनों भुजाओं की सहायता से धर्ममर्यादा का न्यायपूर्वक पालन करते हैं न ? मयदानव की बनायी हुई सभा में इनके राज्य वैभव और दबदबे को देखकर दुर्योधन को बड़ा डाह हुआ था। अपराधियों के प्रति अत्यन्त असहिष्णु भीमसेन ने सर्प के समान दीर्घकालीन क्रोध को छोड़ दिया है क्या ? जब वे गदायुद्ध में तरह-तरह के पैंतरे बदलते थे, तब उनके पैरों की धमक से धरती डोलने लगती थी। जिनके बाणों के जाल से छिपकर किरात वेषधारी, अतएव किसी की पहचान में न आने वाले भगवान् शंकर प्रसन्न हो गये थे, वे रथी और यूथपतियों का सुयश बढ़ाने वाले गाण्डीवधारी अर्जुन तो प्रसन्न हैं न ? अब तो उनके सभी शत्रु शान्त हो चुके होंगे ? पलक जिस प्रकार नेत्रों की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार कुन्ती के पुत्र युधिष्ठिरादि जिनकी सर्वदा सँभाल रखते हैं और कुन्ती ने ही जिनका लालन-पालन किया है, वे माद्री के यमज पुत्र नकुल-सहदेव कुशल से तो हैं न ? उन्होंने युद्ध में में शत्रु से अपना राज्य उसी प्रकार छीन लिया, जैसे दो गरुड़ इन्द्र के मुख से अमृत निकाल लायें।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. चित्त, अहंकार, बुद्धि और मन—ये अन्तःकरण के चार अंश हैं। इनके अधिष्ठाता क्रमशः वासुदेव, संकर्षण, प्रद्दुम्न और अनिरुद्ध हैं।

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