श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 5 श्लोक 28-32
दशम स्कन्ध: पंचम अध्याय (पूर्वार्ध)
मनुष्य के लिए वे ही धर्म, अर्थ और काम शास्त्रविहित हैं, जिनसे उसके स्वजनों को सुख मिले। जिनसे केवल अपने को ही सुख मिलता है; किन्तु अपने स्वजनों को दुःख मिलता है, वे धर्म, अर्थ और काम हितकारी नहीं हैं।
नन्दबाबा ने कहा- भाई वसुदेव! कंस ने देवकी के गर्भ से उत्पन्न तुम्हारे कई पुत्र मार डाले। अन्त में एक सबसे छोटी कन्या बच रही थी, वह भी स्वर्ग सिधार गयी। इसमें संदेह नहीं कि प्राणियों का सुख-दुःख भाग्य पर ही अवलंबित है। भाग्य ही प्राणी का एकमात्र आश्रय है। जो जान लेता है कि जीवन के सुख-दुःख का कारण भाग्य ही है, वह उनके प्राप्त होने पर मोहित नहीं होता ।
वसुदेवजी ने कहा- भाई! तुमने राजा कंस को उसका सालाना कर चुका दिया। हम दोनों मिल भी चुके। अब तुम्हें यहाँ अधिक दिन नहीं ठहरना चाहिए, क्योंकि आजकल गोकुल में बड़े-बड़े उत्पात हो रहे हैं।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित! जब वसुदेवजी ने इस प्रकार कहा, तब नन्द आदि गोपों ने उनसे अनुमति लेकर, बैलों से जुते हुए छकड़ों पर सवार होकर गोकुल की यात्र की।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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