श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 6 श्लोक 1-10
दशम स्कन्ध: षष्ठ अध्याय (पूर्वार्ध)
पूतना-उद्धार
श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित! नन्दबाबा जब मथुरा से चले, तब रास्ते में विचार करने लगे कि वसुदेवजी का कथन झूठा नहीं हो सकता। इससे उनके मन में उत्पात होने की आशंका हो गयी। तब उन्होंने मन-ही-मन ‘भगवान की शरण हैं, वे ही रक्षा करेंगे’ ऐसा निश्चय किया।
पूतना नाम की एक बड़ी क्रूर राक्षसी थी। उसका एक ही काम था - बच्चों को मारना। कंस की आज्ञा से वह नगर, ग्राम और अहीरों की बस्तियों में बच्चों को मारने के लिए घूमा करती थी। जहाँ के लोग अपने प्रतिदिन के कामों में राक्षसों के भय को दूर भगाने वाले भक्तवत्सल भगवान के नाम, गुण और लीलाओं का श्रवण, कीर्तन और स्मरण नहीं करते, वहीं ऐसी राक्षसियों का बल चलता है।
वह पूतना आकाशमार्ग से चल सकती थी और अपनी इच्छा के अनुसार रूप भी बना लेती थी। एक दिन नन्दबाबा के गोकुल के पास आकर उसने माया से अपने को एक सुन्दर युवती बना लिया और गोकुल के भीतर घुस गयी। उसने बड़ा सुन्दर रूप बनाया था। उसकी चोटियों में बेले के फूल गुँथे हुए थे। सुन्दर वस्त्र पहने हुए थी। जब उसके कर्णफूल हिलते थे, तब उनकी चमक से मुख की ओर लटकी हुई अलकें और भी शोभायमान हो जाती थीं। उसके नितम्ब और कुच-कलश ऊँचे-ऊँचे थे और कमर पतली थी। वह अपनी मधुर मुस्कान और कटाक्षपूर्ण चितवन से ब्रजवासियों का चित्त चुरा रही थी। उस रूपवती रमणी को हाथ में कमल लेकर आते देख गोपियाँ ऐसी उत्प्रेक्षा करने लगीं, मानो स्वयं लक्ष्मीजी अपने पति का दर्शन करने के लिए आ रही हैं। पूतना बालकों के लिए ग्रह के समान थी। वह इधर-उधर बालकों को ढूंढती हुई अनायास ही नन्दबाबा के घर में घुस गयी। वहाँ उसने देखा कि बालक श्रीकृष्ण दुष्टों के काल हैं। परन्तु जैसे आग राख की ढेरी में अपने को छिपाये हुए हो, वैसे ही उस समय उन्होंने अपने प्रचण्ड तेज को छिपा रखा था।
भगवान श्रीकृष्ण चर-अचर सभी प्राणियों की आत्मा हैं। इसलिए उन्होंने उसी क्षण जान लिया कि यह बच्चों को मार डालने वाला पूतना-ग्रह है और अपने नेत्र बंद कर लिये[१]। जैसे कोई पुरुष भ्रमवश सोये हुए साँप को रस्सी समझकर उठा ले, वैसे ही अपने कालरूप भगवान श्रीकृष्ण को पूतना ने अपनी गोद में उठा लिया। मखमली म्यान के भीतर छिपी हुई तीखी धारवाली तलवार के समान पूतना का ह्रदय तो बड़ा कुटिल था, किन्तु ऊपर से वह बहुत मधुर और सुन्दर व्यवहार कर रही थी। देखने में वह एक भद्र महिला के समान जान पड़ती थी। इसलिय रोहिणी और यशोदाजी ने उसे घर के भीतर आयी देखकर भी उसकी सौन्दर्यप्रभा से हतप्रभ-सी होकर कोई रोक-टोक नहीं की, चुपचाप खड़ी-खड़ी देखतीं रहीं। इधर भयानक राक्षसी पूतना ने बालक श्रीकृष्ण को अपनी गोद में लेकर उनके मुँह में अपना स्तन दे दिया, जिसमें बड़ा भयंकर और किसी प्रकार भी पच न सकने वाला विष लगा हुआ था। भगवान ने क्रोध को अपना साथी बनाया और दोनों हाथों से उसके स्तनों को जोर से दबाकर उसके प्राणों के साथ उसका दूध पीने लगे (वे उसका दूध पीने लगे और उनका साथी क्रोध प्राण पीने लगा)[२]।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पूतना को देखकर भगवान श्रीकृष्ण ने अपने नेत्र बंद कर लिये, इस पर भक्त कवियों और टीकाकारों ने अनेकों प्रकार की उत्प्रेक्षाएं की हैं, जिनमें कुछ ये हैं— १. श्रीमद्वल्ल्भाचार्य ने सुबोधिनी में कहा है—अविद्या ही पूतना है। भगवान श्रीकृष्ण ने सोचा कि मेरी दृष्टि के सामने अविद्या टिक नहीं सकती, फिर लीला कैसे होगी, इसलिये नेत्र बन्द कर लिये। २. यह पूतना बाल-घातिनी है ‘पूतानपि नयति’। यह पवित्र बालकों को भी ले जाती है। ऐसा जघन्य कृत्य करने वाली का मुँह नहीं देखना चाहिये, इसलिये नेत्र बंद कर लिये। ३. इस जन्म में तो इसने कुछ साधन किया नहीं है। संभव है मुझसे मिलने के लिये पूर्व जन्म में कुछ किया हो। मानो पूतना के पूर्व-पूर्व जन्मों के साधन देखने के लिये ही श्रीकृष्ण ने नेत्र बंद कर लिये। ४. भगवान ने अपने मन में विचार किया कि मैंने पापिनी का दूध कभी नहीं पिया है। अब जैसे लोग आँख बंद करके चिरायते का काढ़ा पी जाते हैं, वैसे ही इसका दूध बी पी जाऊँ। इसलिये नेत्र बंद कर लिये। ५. भगवान के उदर में निवास करने वाले असंख्य कोटि ब्रम्हाण्डो के जीव यह जानकर घबरा गये कि श्यामसुन्दर पूतना के स्तन में लगा हलाहल विष पीने जा रहे हैं। अतः उन्हें समझाने के लिये ही श्रीकृष्ण नेत्र बंद कर लिये। ६. श्रीकृष्ण शिशु ने विचार किया कि मैं गोकुल में यह सोचकर आया था कि माखन-मिश्री खाऊँगा। सो छठी के दिन ही विष पीने का अवसर आ गया। इसलिये आँख बंद करके मानो शंकरजी का ध्यान किया कि आप आकर अपना अभ्यस्त विष-पान कीजिये, मैं दूध पीऊँगा। ७. श्रीकृष्ण के नेत्रों ने विचार किया कि परम स्वतन्त्र ईश्वर इस दुष्टा को अच्छी-बुरी चाहे जो गति दे दें, परन्तु हम दोनों इसे चन्द्र मार्ग अथवा सूर्य मार्ग दोनों में से एक भी नहीं देंगे। इसलिये उन्होंने अपने द्वार बंद कर लिये। ८. नेत्रों ने सोचा पूतना के नेत्र हैं तो हमारी जाति के; परन्तु ये क्रूर राक्षसी की शोभा बढ़ा रहे हैं। इसलिये अपने होने पर भी ये दर्शन के योग्य नहीं हैं। इसलिये उन्होंने अपने को पलकों से ढक लिया। ९. श्रीकृष्ण के नेत्रों में स्थित धर्मात्मा निमि ने उस दुष्टा को देखना उचित न समझकर नेत्र बंद कर लिये। १०. श्रीकृष्ण के नेत्र राज-हंस हैं। उन्हें बकी पूतना के दर्शन करने की कोई उत्कण्ठा नहीं थी। इसलिये नेत्र बंद कर लिये। ११. श्रीकृष्ण ने विचार किया कि बाहर से तो इसने माता-सा रुप धारण कर रखा है, परन्तु ह्रदय में अत्यन्त क्रूरता भरे हुए हैं। ऐसी स्त्री का मुँह न देखना ही उचित है। इसलिये नेत्र बंद कर लिये। १२. उन्होंने सोचा कि मुझे निडर देखकर कहीं यह ऐसा न समझ जाय कि इसके ऊपर मेरा प्रभाव नहीं चला और कहीं लौट न जाय। इसलिये नेत्र बंद कर लिये। १३. बाल-लीला के प्रारम्भ में पहले-पहल स्त्री से ही मुठभेड़ हो गयी, इस विचार से विरक्तिपूर्वक नेत्र बंद कर लिये। १४. श्रीकृष्ण के मन में यह बात आयी कि करुणा-दृष्टि से देखूँगा तो इसे मारूँगा कैसे, और उग्र दृष्टि से देखूँगा तो यह अभी भस्म हो जायगी। लीला की सिद्धि के लिये नेत्र बंद कर लेना ही उत्तम है। इसलिये नेत्र बंद कर लिये। १५. यह धात्री का वेष धारण करके आयी है, मारना उचित नहीं है। परन्तु यह और ग्वालबालों को मारेगी। इसलिये इसका यह वेष देखे बिना ही मार डालना चाहिये। इसलिये नेत्र बंद कर लिये। १६. बड़े-से-बड़ा अनिष्ट योग से निवृत्त हो जाता है। उन्होंने नेत्र बंद करके मानो योगदृष्टि सम्पादित की। १७. पूतना यह निश्चय करके आयी थी कि मैं व्रज के सारे शिशुओं को मार डालूँगी, परन्तु भक्त रक्षा परायण भगवान की कृपा से व्रज का एक भी शिशु उसे दिखायी नहीं दिया और बालकों को खोजती हुई वह लीला शक्ति की प्रेरणा से सीधी नन्दालय में आ पहुँची, तब भगवान ने सोचा कि मेरे भक्त का बुरा करने की बात तो दूर रही, जो मेरे भक्त का बुरा सोचता है, उस दुष्ट का मैं मुँह नहीं देखता; व्रज-बालक सभी श्रीकृष्ण के सखा हैं, परम भक्त हैं, पूतना उनको मारने का संकल्प करके आयी है, इसलिये उन्होंने नेत्र बंद कर लिये। १८. पूतना अपनी भीषण आकृति को छिपाकर राक्षसी माया से दिव्य रमणी रूप बनाकर आयी है। भगवान की दृष्टि पड़ने पर माया रहेंगी नहीं और इसका असली भयानक रूप प्रकट हो जायगा। उसे सामने देखकर यशोदा मैया डर जायँ और पुत्र की अनिष्टाशंका से कहीं उनके हठात् प्राण निकल जायँ, इस आशंका से उन्होंने नेत्र बंद कर लिये। १९. पूतना हिंसा पूर्ण ह्रदय से आयी है, परन्तु भगवान उसकी हिंसा के लिये उपयुक्त दण्ड न देकर उसका प्राण-वधमात्र करके परम कल्याण करना चाहते हैं। भगवान समस्त सद्गुणों के भण्डार हैं। उनमें धृष्टता आदि दोषों का लेश भी नहीं है, इसीलिये पूतना के कल्याणार्थ भी उसका प्राण-वध करने में उन्हें लज्जा आती है। इस लज्जा से ही उन्होंने नेत्र बंद कर लिये। २०. भगवान जगत्पिता हैं—असुर-राक्षसादि भी उनकी सन्तान ही हैं। पर वे सर्वथा उच्छ्रंखल और उदण्ड हो गये हैं, इसलिये उन्हें दण्ड देना आवश्यक है। स्नेहमय माता-पिता जब अपने उच्छ्रंखल पुत्र को दण्ड देते हैं, तब उनके में दुःख होता है। परन्तु वे उसे भय दिखलाने के लिये उसे बाहर प्रकट नहीं करते। इसी प्रकार भगवान भी जब असुरों को मारते हैं, तब पिता के नाते उनको भी दुःख होता है; पर दूसरे असुरों को भय दिखलाने के लिये वे उसे प्रकट नहीं करते। भगवान अब्ब पूतना को मारने वाले हैं, परन्तु उसकी मृत्युकालीन पीड़ा को अपनी आँखों देखना नहीं चाहते, इसी से उन्होंने नेत्र बंद कर लिये। २१. छोटे बालकों का स्वभाव है कि वे अपनी मा के सामने खूब खेलते हैं, पर किसी अपरिचित को देखकर डर जाते हैं और नेत्र मूँद लेते हैं। अपरिचित पूतना को देखकर इसीलिये बाल-लीला-विहारी भगवान ने नेत्र बंद कर लिये। यह उनकी बाल लीला का माधुर्य है।
- ↑ भगवान रोष के साथ पूतना के प्राणों के सहित स्तन-पान करने लगे, इसका यह अर्थ प्रतीत होता है कि रोष (रोषाधिष्ठातृ-देवता रूद्र) ने प्राणों का पान किया और श्रीकृष्ण ने स्तन का।
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