श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 60 श्लोक 36-40

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दशम स्कन्ध: षष्टितमोऽध्यायः (60) (उत्तरार्धः)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षष्टितमोऽध्यायः श्लोक 36-40 का हिन्दी अनुवाद

आप कहते हैं कि हमारा मार्ग स्पष्ट नहीं है और हम लौकिक पुरुषों-जैसा आचरण भी नहीं करते; यह बात भी निस्सन्देह सत्य है। क्योंकि जो ऋषि-मुनि आपके पादपद्मों का मकरन्द-रस सेवन करते हैं, उनका मार्ग भी अस्पष्ट रहता है और विषयों में उलझे हुए नरपशु उसका अनुमान भी नहीं लगा सकते। और हे अनन्त! आपके मार्ग पर चलने वाले आपके भक्तों की भी चेष्टाएँ जब प्रायः अलौकिक ही होती है, तब समस्त शक्तियों और ऐश्वर्यों के आश्रय आपकी चेष्टाएँ अलौकिक हों इसमें तो कहना ही क्या है ? आपने अपने को अकिंचन बतलाया है; परन्तु आपकी अकिंचनता दरिद्रता नहीं है। उसका अर्थ यह है कि आपके अतिरिक्त और कोई वस्तु न होने के कारण आप ही सब कुछ हैं। आपके पास रखने के लिये कुछ नहीं है। परन्तु जिन ब्रम्हा आदि देवताओं की पूजा सब लोग करते हैं, भेंट देते हैं, वे ही लोग आपकी पूजा करते रहते हैं। आप उनके प्यारे हैं और वे आपके प्यारे हैं। (आपका यह कहना भी सर्वथा उचित है कि धनाढ्यता लोग मेरा भजन नहीं करते;) जो लोग अपनी धनाढ्यता के अभिमान से अंधे हो रहे हैं और इन्द्रियों को तृप्त करने में ही लगे हैं, वे न तो आपका भजन-सेवन ही करते और न तो यह जानते हैं कि आप मृत्यु के रूप में उनके सिरपर सवार हैं । जगत् में जीव के लिये जितने भी वांछनीय पदार्थ हैं—धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष—उन सबके रुप में आप ही प्रकट हैं। आप समस्त वृत्तियों—प्रवृत्तियों, साधनों, सिद्धियों और साध्यों के फलस्वरूप हैं। विचार शील पुरुष आपको प्राप्त करने के लिये सब कुछ छोड़ देते हैं। भगवन्! उन्हीं विवेककी पुरुषों का आपके साथ सम्बन्ध होना चाहिये। जो लोग स्त्री-पुरुष के सहवास से प्राप्त होने वाले सुख या दुःख के वशीभूत हैं, वे कदापि आपका सम्बन्ध प्राप्त करने के योग्य नहीं हैं । यह ठीक है कि भिक्षुको ने आपकी प्रशंसा की है। परन्तु किन भिक्षुकों ने ? उन परमशान्त संन्यासी महात्माओं ने आपकी महिमा और प्रभाव का वर्णन किया है, जिन्होंने अपराधी-से-अपराधी व्यक्ति को भी दण्ड ने देने का निश्चय कर लिया है। मैंने अदूरदर्शिता से नहीं, इस बात को समझते हुए आपको वरण किया है कि आप सारे जगत् के आत्मा हैं और अपने प्रेमियों को आत्मदान करते हैं। मैंने जान-बूझकर उन ब्रम्हा और देवराज इन्द्र आदि का भी इसलिये परित्याग कर दिया है कि आपकी भौंहों के इशारे से पैदा होने वाला काल अपने वेग से उनकी आशा-अभिलाषाओं पर पर पानी फेर देता है। फिर दूसरों की—शिशुपाल, दन्तवक्त्र या जरासन्ध की तो बात ही क्या है ?

सर्वेश्वर आर्यपुत्र! आपकी यह बात किसी प्रकार युक्तिसंगत नहीं मालूम होती कि आप राजाओं से भयभीत होकर समुद्र में आ बसे हैं। क्योंकि आपने केवल अपने सार्ग्न्धनुष के टंकार से मेरे विवाह के समय आये हुए समस्त राजाओं को भगाकर अपने चरणों में समर्पित मुझ दासी को उसी प्रकार हरण कर लिया, जैसे सिंह अपने कर्कश ध्वनि से वन-पशुओं को भगाकर अपना भाग ले आवे ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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