श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 60 श्लोक 41-46
दशम स्कन्ध: षष्टितमोऽध्यायः (60) (उत्तरार्धः)
कमलनयन! आप कैसे कहते हैं कि जो मेरा अनुसरण करता है, उसे प्रायः कष्ट ही उठाया पड़ता है। प्राचीन काल के अंग, पृथु, भरत, ययाति और गय आदि जो बड़े-बड़े राजराजेश्वर अपना-अपना एकछत्र साम्राज्य छोड़कर आपको पाने की अभिलाषा से तपस्या करने वन में चले गये थे, वे आपके मार्ग का अनुसरण करने के कारण क्या किसी प्रकार का कष्ट उठा रहे हैं । आप कहते हैं कि तुम और किसी राजकुमार का वरण कर लो। भगवन्! आप समस्त गुणों के एकमात्र आश्रय हैं। बड़े-बड़े संत आपके चरणकमलों की सुगन्ध का बखान करते रहते हैं। उसका आश्रय लेने मात्र से लोग संसार के पाप-ताप से मुक्त हो जाते हैं। लक्ष्मी सर्वदा उन्हीं में निवास करती हैं। फिर आप बतलाइये कि अपने स्वार्थ और परमार्थ को भलीभाँति समझने वाली ऐसी कौन-सी स्त्री है, जिसे एक बार उन चरणकमलों की सुगन्ध सूँघने को मिल जाय और फिर वह उनका तिरस्कार करके ऐसे लोगों को वरण करे जो सदा मृत्यु, रोग, जन्म, जरा आदि भयों से युक्त हैं! कोई भी बुद्धिमती स्त्री ऐसा नहीं कर सकती । प्रभो! आप सारे जगत् के एकमात्र स्वामी हैं। आप ही इस लोक और परलोक में समस्त आशाओं को पूर्ण करने वाले एवं आत्मा हैं। मैंने आपको अपने अनुरूप समझकर ही वरण किया है। मुझे अपने कर्मों के अनुसार विभिन्न योनियों में भटकता पड़े, इसकी मुझको परवा नहीं है। मेरी एकमात्र अभिलाषा यही है कि मैं सदा अपना भजन करने वालों का मिथ्या संसारभ्रम निवृत्त करने वाले तथा उन्हें अपना स्वरप तक दे डालने वाले आप परमेश्वर के चरणों कि शरण में रहूँ । अच्युत! शत्रुसूदन! गधों के समान घर का बोझा ढ़ोने वाले, बैलों के समान गृहस्थी के व्यापारों में जुते रहकर कष्ट उठाने वाले, कुत्तों के समान तिरस्कार सहने वाले, बिलाव के समान कृपण और हिंसक तथा क्रीत दासों के समान स्त्री की सेवा करने वाले शिशुपाल आदि राजा लोग, जिन्हें वरण करने के लिये आपने मुझे संकेत किया है—उसी अभागिन स्त्री के पति हों, जिनके कानों में भगवान शंकर, ब्रम्हा आदि देवेश्वरों की सभा में गयी जाने वाली आपकी लीला कथा ने प्रवेश नहीं किया है । यह मनुष्य का शरीर जीवित होने पर भी मुर्दा ही है। ऊपर से चमड़ी, दाढ़ी-मूँछ, रोएँ, नख और केशों से ढका हुआ है; परन्तु इसके भीतर मांस, हड्डी, खून, कीड़े, मल-मूत्र, कफ, पित्त और वायु भरे पड़े हैं। इसे वही मूढ़ स्त्री अपना प्रियतम पति समझकर सेवन करती है, जिसे कभी आपके चरणारविन्द के मकरन्द की सुगन्ध सूँघने को नहीं मिली है । कमलनयन! आप आत्माराम हैं। मैं सुन्दरी अथवा गुणवती हूँ, इन बातों पर आपकी दृष्टि नहीं जाती। अतः आपका उदासीन रहना स्वाभाविक है, फिर भी आपके चरणकमलों में मेरा सुदृढ़ अनुराग हो, यही मेरी अभिलाषा है। जब आप इस संसार की अभिवृद्धि के लिये उत्कट रजोगुण स्वीकार करके मेरी ओर देखते हैं, तब वह भी आपका परम अनुग्रह ही है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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