श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 67 श्लोक 1-15

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दशम स्कन्ध: सप्तषष्टितमोऽध्यायः (67) (उत्तरार्धः)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तषष्टितमोऽध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद



द्विविद का उद्धार

राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवान बलरामजी सर्वशक्तिमान् एवं सृष्टि-प्रलय की सीमा से परे, अनन्त हैं। उनका स्वरुप, गुण, लीला आदि मन, बुद्धि और वाणी के विषय नहीं हैं। उनकी एक-एक लीला लोकमर्यादा से विलक्षण है, अलौकिक है। उन्होंने और जो कुछ अद्भुत कर्म किये हों, उन्हें मैं फिर सुनना चाहता हूँ ।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! द्विविद नाम का एक वानर था। वह भौमासुर का सखा, सुग्रीव का मन्त्री और मैन्द का शक्तिशाली भाई था । जब उसने सुना कि श्रीकृष्ण ने भौमासुर को मार डाला, तब वह अपने मित्र की मित्रता के ऋण से उऋण होने के लिये राष्ट्र-विप्लव करने पर उतारू हो गया। वह वानर बड़े-बड़े नगरों, गावों, खानों और अहीरों की बस्तियों में आग लगाकर उन्हें जलाने लगा । कभी वह बड़े-बड़े पहाड़ों को उखाड़कर उनसे प्रान्त-के-प्रान्त चकनाचूर कर देता और विशेष करके ऐसा काम वह आनर्त (कठियावाड़) देश में ही करता था। क्योंकि उसके मित्र को मारने वाले भगवान श्रीकृष्ण उसी देश में निवास करते थे । द्विविद वानर में दस हजार हाथियों का बल था। कभी-कभी वह दुष्ट समुद्र में खड़ा हो जाता और हाथों से इतना जल उछालता कि समुद्रतट के देश डूब जाते । वह दुष्ट बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों के आश्रमों की सुन्दर-सुन्दर लता-वनस्पतियों को तोड़-मरोड़ चौपट कर देता और उनके यज्ञसम्बन्धी अग्नि-कुण्डो में मलमूत्र डालकर अग्नियों को दूषित कर देता । जैसे भृंगी नाम का कीड़ा दूसरे कीड़ों को ले जाकर अपने बिल में बंद कर देता है, वैसे ही मदोन्मत्त वानर स्त्रियों और पुरुषों को ले जाकर पहाड़ों की घाटियों तथा गुफाओं में डाल देता। फिर बाहर से बड़ी-बड़ी चट्टानें रखकर उनका मुँह बंद कर देता । इस प्रकार वह देशवासियों का तो तिरस्कार करता ही, कुलीन स्त्रियों को भी दूषित कर देता था। एक दिन वह दुष्ट सुललित संगीत सुनकर रैवतक पर्वत पर गया ।

वहाँ उसने देखा कि यदुवंशशिरोमणि बलरामजी सुन्दर-सुन्दर युवतियों के झुंड में विराजमान हैं। उनका एक-एक अंग अत्यन्त सुन्दर और दर्शनीय है और वक्षःस्थल पर कमलों की माला लटक रही है ।

वे मधुपान करके मधुर संगीत गा रहे थे और उनके नेत्र आनन्दोन्माद से विह्वल हो रहे थे। उनका शरीर इस प्रकार शोभायमान हो रहा था, मानो कोई मदमत्त गजराज हो । वह दुष्ट वानर वृक्षों की शाखाओं पर चढ़ जाता और उन्हें झकझोर देता। कभी स्त्रियों के सामने आकर किलकारी भी मारने लगता ।युवती स्त्रियाँ स्वभाव से ही चंचल और हास-परिहास में रूचि रखने वाली होती हैं। बलरामजी की स्त्रियाँ उस वानर की ढिठाई देखकर हँसने लगीं । अब वह वानर भगवान बलरामजी के सामने ही उन स्त्रियों की अवहेलना करने लगा। वह उन्हें कभी अपनी गुदा दिखाता तो कभी भौंहें मटकाता, फिर कभी-कभी गरज-तरज कर मुँह बनाता, घुड़कता । वीरशिरोमणि बलरामजी उसकी यह चेष्टा देखकर क्रोधित हो गये। उन्होंने उस पर पत्थर का एक टुकड़ा फेंका। परन्तु द्विविद ने उससे अपने को बचा लिया और झपटकर मधुकलश उठा लिया तथा बलरामजी की अवहेलना करने लगा। उस धूर्त ने मधुकलश को तो फोड़ ही डाला, स्त्रियों के वस्त्र फाड़ डाले और अब वह दुष्ट हँस-हँसकर बलरामजी को क्रोधित करने लगा ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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