श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 67 श्लोक 16-28

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दशम स्कन्ध: सप्तषष्टितमोऽध्यायः (67) (उत्तरार्धः)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तषष्टितमोऽध्यायः श्लोक 16-28 का हिन्दी अनुवाद



परीक्षित्! जब इस प्रकार बलवान् और मदोन्मत्त द्विविद बलरामजी को नीचा दिखाने तथा उनका घोर तिरस्कार करने लगा, तब उन्होंने ढिठाई देखकर और उसके द्वारा सताये हुए देशों की दुर्दशा पर विचार करके उस शत्रु को मार डालने की इच्छा से क्रोधपूर्वक अपना हल-मूसल उठाया। द्विविद भी बड़ा बलवान् था। उसने अपने एक ही हाथ से शाल का पेड़ उखाड़ लिया और बड़े वेग से दौड़कर बलरामजी के सिर पर उसे दे मारा। भगवान बलराम पर्वत की तरह अविचल खड़े रहे। उन्होंने अपने हाथ से उस वृक्ष को सिर पर गिरते-गिरते पकड़ लिया और अपने सुनन्द नामक मूसल से उस पर प्रहार किया। मूसल लगने से द्विविद का मस्तक फट गया और उससे खून की धारा बहने लगी। उस समय उसकी ऐसी शोभा हुई, मानो किसी पर्वत से गेरू का सोता बह रहा हो। परन्तु द्विविद ने अपने सिर फटने की कोई परवा नहीं की। उसने कुपित होकर एक दूसरा वृक्ष उखाड़ा, उसे झाड़-झूड़कर बिना पत्ते का कर दिया और फिर उससे बलरामजी पर बड़े जोर का प्रहार किया।

बलरामजी ने उस वृक्ष के सैकड़ों टुकड़े कर दिये। इसके बाद द्विविद ने बड़े क्रोध से दूसरा वृक्ष चलाया, परन्तु भगवान बलरामजी ने उसे भी सतधा छिन्न-भिन्न कर दिया । इस प्रकार वह उनसे युद्द करता रहा। एक वृक्ष के टूट जाने पर दूसरा वृक्ष उखाड़ता और उससे प्रहार करने की चेष्टा करता। इस तरह सब ओर से वृक्ष उखाड़-उखाड़कर लड़ते-लड़ते उसने सारे वन को ही वृक्षहीन कर दिया । वृक्ष न रहे, तब द्विविद का क्रोध और भी बढ़ गया तथा वह बहुत चिढ़कर बलरामजी के ऊपर बड़ी-बड़ी चट्टानों की वर्षा करने लगा। परन्तु भगवान बलरामजी ने अपने मूसल से उन सभी चट्टानों को खेल-खेल में ही चकनाचूर कर दिया । अन्त में कपिराज द्विविद अपनी ताड़ के समान लम्बी बाँहों से घूँसा बाँधकर बलरामजी की ओर झपटा और पास जाकर उसने उनकी छाती पर प्रहार किया । अब यदुवंशशिरोमणि बलरामजी ने हल और मूसल अलग रख दिये तथा क्रुद्ध होकर दोनों हाथों से उसके जत्रुस्थान (हँसली) पर प्रहार किया। इससे वह वानर खून उगलता हुआ धरती पर गिर पड़ा । परीक्षित्! आँधी आने पर जैसे जल में डोंगी डगमगाने लगती है, वैसे ही उसके गिरने से बड़े-बड़े वृक्षों और चोटियों के साथ सारा पर्वत हिल गया । आकाश में देवता लोग ‘जय-जय’, सिद्ध लोग ‘नमो-नमः’ और बड़े-बड़े ऋषि-मुनि ‘साधु-साधु’ के नारे लगाने और बलरामजी पर फूलों की वर्षा करने लगे । परीक्षित्! द्विविद ने जगत् में बड़ा उपद्रव मचा रखा था, अतः भगवान बलरामजी ने उसे इस प्रकार मार डाला और फिर वे द्वारका पुरी में लौट आये। उस समय सभी पुरजन-परिजन भगवान बलराम की प्रशंसा कर रहे थे ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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