श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 68 श्लोक 29-41
दशम स्कन्ध: अष्टषष्टितमोऽध्यायः (68) (उत्तरार्धः)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! कुरुवंशी अपनी कुलीनता, बान्धवों-परिवारवालों (भीष्मादि) के बल और धनसम्पत्ति के घमंड में चूर हो रहे थे। उन्होंने साधारण शिष्टाचार की भी परवा नहीं की और वे भगवान बलरामजी को इस प्रकार दुर्वचन कहकर हस्तिनापुर लौट गये । बलरामजी कौरवों की दुष्टता-अशिष्टता देखी और उनके दुर्वचन भी सुने। अब उनका चेहरा क्रोध से तमतमा उठा। उस समय उनकी ओर देखा तक नहीं जाता था। वे बार-बार जोर-जोर से हँसकर कहने लगे— ‘सच है, जिन दुष्टों को अपनी कुलीनता, बलपौरुष और धन का घमंड हो जाता है, वे शान्ति नहीं चाहते। उनको दमन करने का, रास्ते पर लाने का उपाय समझाना-बुझाना नहीं, बल्कि दण्ड देना है—ठीक वैसे ही, जैसे पशुओं को ठीक करने के लिये डंडे का प्रयोग आवश्यक होता है ॥ ३१ ॥ भला, देखो तो सही—सारे यदुवंशी और श्रीकृष्ण भी क्रोध से भरकर लड़ाई के लिये तैयार हो रहे थे। मैं उन्हें शनैः-शनैः समझा-बुझाकर उन लोगों का शान्त करने के लिये, सुलह करने के लिये यहाँ आया । फिर भी ये मूर्ख ऐसी दुष्टता कर रहे हैं! उन्हें शान्ति प्यारी नहीं, कलह प्यारी है। ये इतने घमंडी हो रहे हैं कि बार-बार मेरा तिरस्कार करके गलियाँ बक गये हैं । ठीक है, भाई! ठीक है। पृथ्वी के राजाओं की तो क्या, त्रिलोकी के स्वामी इन्द्र आदि लोकपाल जिनकी आज्ञा का पालन करते हैं, वे उग्रसेन राजाधिराज नहीं हैं; वे तो केवल भोज, वृष्णि और अन्धकवंशी यादवों के ही स्वामी हैं! । क्यों! जो सुधर्मासभा को अधिकार में करके उसमें विराजते हैं और जो देवताओं के वृक्ष पारिजात को उखाड़कर ले आते और उसका उपभोग करते हैं, वे भगवान श्रीकृष्ण भी राजसिंहासन के अधिकारी नहीं हैं! अच्छी बात है! । सारे जगत् की स्वामिनी भववती लक्ष्मी स्वयं जिनके चरण-कमलों की उपासना करती हैं, वे लक्ष्मीपति भगवान श्रीकृष्णचन्द्र छत्र, चँवर आदि राजोचित सामग्रियों को नहीं रख सकते । ठीक है भाई! जिनके चरण-कमलों की धूल संत पुरुषों के द्वारा सेवित गंगा आदि तीर्थों को भी तीर्थ बनाने वाली है, सारे लोकपाल अपने-अपने श्रेष्ठ मुकुट पर जिनके चरणकमलों की धूर धारण करते हैं; ब्रम्हा, शंकर, मैं और लक्ष्मीजी जिनकी कला की भी कला हैं और जिनके चरणों की धूल सदा-सर्वदा धारण करते हैं; उन भगवान श्रीकृष्ण के लिये भला; राजसिंहासन कहाँ रखा है! । बेचारे यदुवंशी तो कौरवों का दिया हुआ पृथ्वी का एक टुकड़ा भोगते हैं। क्या खूब! हम लोग जूती हैं और ये कुरुवंशी स्वयं सिर हैं । ये लोग ऐश्वर्य से उन्मत्त, घमंडी कौरव पागल-सरीखे हो रहें हैं। इनकी एक-एक बात कटुता से भरी और बेसिर-पैर की है। मेरे जैसा पुरुष—जो इनका शासन कर सकता है, इन्हें दण्ड देकर इनके होश ठिकाने ला सकता है—भला इनकी बातों को कैसे सहन कर सकता है ? आज मैं सारी पृथ्वी को कौरवहीन कर डालूँगा, इस प्रकार कहते-कहते बलरामजी क्रोध से ऐसे भर गये, मानो त्रिलोकी को भस्म कर देंगे। वे अपना हल लेकर खड़े हो गये । उन्होंने उसकी नोक से बार-बार चोट करके हस्तिनापुर को उखाड़ लिया और उसे डुबाने के लिये बड़े क्रोध से गंगाजी की ओर खींचने लगे ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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