श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 11 श्लोक 17-28
द्वादश स्कन्ध: एकादशोऽध्यायः (11)
सूर्यमण्डल अथवा अग्निमण्डल ही भगवान की पूजा का स्थान है, अन्तःकरण की शुद्धि ही मन्त्र दीक्षा है और अपने समस्त पापों को नष्ट कर देना ही भगवान की पूजा है । ब्राम्हणों! समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य—इन छः पदार्थों का नाम ही लीला-कमल है, जिसे भगवान अपने करकमल में धारण करते हैं। धर्म और यश को क्रमशः चँवर एवं व्यजन (पंखें) के रूप से तथा अपने निर्भय धाम वैकुण्ठ को छत्र रूप से धारण किये हुए हैं। तीनों वेदों का ही नाम गरुड़ है। वे ही अन्तर्यामी परमात्मा का वहन करते हैं । आत्मस्वरुप भगवान की उनसे कभी न बिछुड़ने वाली आत्मशक्ति का ही नाम लक्ष्मी है। भगवान के पार्षदों के नायक विश्व विश्रुत विष्वक्सेन पांचरात्रादि आगमरूप हैं। भगवान के स्वाभाविक गुण अणिमा, महिमा आदि अष्ट सिद्धियों को ही नन्द-सुनन्दादि आठ द्वारपाल कहते हैं । शौनकजी! स्वयं भगवान ही वासुदेव, संकर्षण, प्रदुम्न और अनिरुद्ध—इन चार मूर्तियों के रूप में अवस्थित हैं; इसलिये उन्हीं को चतुर्व्यूह के रूप में कहा जाता है । वे ही जाग्रत्-अवस्था के अभिमानी ‘विश्व’ बनकर शब्द, सपर्श आदि बाह्य विषयों को ग्रहण करते और वे ही स्वप्नावस्था के अभिमानी ‘तैजस’ बनकर बाह्य विषयों के बिना ही मन-ही-मन अनेक विषयों को देखते और ग्रहण करते हैं। वे ही सुषुप्ति-अवस्था के अभिमानी ‘प्राज्ञ’ बनकर विषय और मन के संस्कारों से युक्त अज्ञान से ढक जाते हैं और वही सबके साक्षी ‘तुरीय’ रहकर समस्त ज्ञानों के अधिष्ठान रहते हैं । इस प्रकार अंग, उपांग, आयुध और आभूषणों से युक्त तथा वासुदेव, संकर्षण, प्रद्दुम्न एवं अनिरुद्ध—इन चार मूर्तियों के रूप में प्रकट सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीहरि ही क्रमशः विश्व, तैजस, पाज्ञ एवं तुरीयरूप से प्रकशित होते हैं । शौनकजी! वही सर्वस्वरुप भगवान वेदों के मूल कारण हैं, वे स्वयं प्रकाश एवं अपनी महिमा से परिपूर्ण हैं। वे अपनी माया से ब्रम्हा आदि रूपों एवं नामों से इस विश्व की सृष्टि, स्थिति और संहार सम्पन्न करते हैं। इन सब कर्मों और नामों से उनका ज्ञान कभी आवृत नहीं होता। यद्यपि शास्त्रों में भिन्न के समान उनका वर्णन हुआ है अवश्य, परन्तु वे अपने भक्तों को आत्मस्वरुप से ही प्राप्त होते हैं । सच्चिदानन्दस्वरुप श्रीकृष्ण! आप अर्जुन ने के सखा हैं। आपने यदुवंशशिरोमणि के रूप में अवतार ग्रहण करके पृथ्वी के द्रोही भूपालों को भस्म कर दिया है। आपका पराक्रम सदा एकरस रहता है। व्रज की गोपबलाएँ और आपके नारदादि प्रेमी निरन्तर आपके पवित्र यश का गान करते रहते हैं। गोविन्द! आपके नाम, गुण और लीलादि का श्रवण करने से ही जीव का मंगल हो जाता है। हम सब आपके सेवक हैं। आप कृपा करके हमारी रक्षा कीजिये । पुरुषोत्तम भगवान के चिन्ह भूत अंग, उपांग और आयुध आदि के इस वर्णन का जो मनुष्य भगवान में ही चित्त लगाकर पवित्र होकर प्रातःकाल पाठ करेगा, उसे सबके ह्रदय में रहने वाले ब्रम्हस्वरुप परमात्मा का ज्ञान हो जायगा । शौनकजी ने कहा—सूतजी! भगवान श्रीशुकदेवजी ने श्रीमद्भागवत-कथा सुनाते समय राजर्षि परीक्षित् से (पंचम स्कन्ध में) कहा था कि ऋषि, गन्धर्व, नाग, अप्सरा, यक्ष, राक्षस और देवताओं का एक सौरगण होता है और ये सातों प्रत्येक महीने में बदलते रहते हैं। ये बारह गण अपने स्वामी द्वादश आदित्यों के साथ रहकर क्या काम करते हैं और उनके अन्तर्गत व्यक्तियों के नाम क्या हैं ? सूर्य के रूप में भी स्वयं भगवान ही हैं; इसलिये उनके विभाग को हम बड़ी श्रद्धा के साथ सुनना चाहते हैं, आप कृपा करके कहिये ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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