श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 2 श्लोक 40-44
द्वादश स्कन्ध: द्वितीयोऽध्यायः (2)
परीक्षित्! मैंने तुमसे जिन राजाओं का वर्णन किया है, वे सब और उनके अतिरिक्त दूसरे राजा भी इस पृथ्वी को ‘मेरी-मेरी’ करते रहे, परन्तु अन्त में मरकर धूल में मिल गये । यह शरीर क भले ही कोई राजा कह ले; परन्तु अन्त में यह कीड़ा, विष्ठा अथवा राख के रूप में ही परिणत होगा, राख ही होकर रहेगा। इसी शरीर के या इसके सम्बन्धियों के लिये जो भी किसी भी प्राणी को सताता है, वह न तो अपना स्वार्थ जनता है और न तो परमार्थ। क्योंकि प्राणियों को सताना तो नरक का द्वार है । वे लोग यही सोचा करते हैं कि मेरे दादा-परदादा इस अखण्ड भूमण्डल का शासन करते थे; अब वह मेरे अधीन किस प्रकार रहे और मेरे बाद मेरे बेटे-पोते, मेरे वंशज किस प्रकार इसका उपभोग करें । जो मूर्ख इस आग, पानी और मिट्टी के शरीर को अपना आपा मान बैठते हैं और बड़े अभिमान के साथ डींग हाँकते हैं कि यह पृथ्वी मेरी है। अन्त में वे शरीर और पृथ्वी दोनों को छोड़कर स्वयं ही अदृश्य हो जाते हैं । प्रिय परीक्षित्! जो-जो नरपति बड़े उत्साह और बल-पौरुष से इस पृथ्वी के उपभोग में लगे रहे, उन सबका काल ने अपने विकराल गाल में धर दबाया। अब केवल इतिहास में उनकी कहानी ही शेष रह गयी है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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