श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय 10 श्लोक 1-15
द्वितीय स्कन्ध: दशम अध्यायः (10)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इस भागवतपुराण में सर्ग, विसर्ग, स्थान, पोषण, ऊति, मन्वन्तर, ईशानुकथा, निरोध, मुक्ति और आश्रय—इन दस विषयों का वर्णन है । इसमें जो दसवाँ आश्रय-तत्व है, उसी का ठीक-ठीक निश्चय करने के लिये कहीं श्रुति से, कहीं तात्पर्य से और कहीं दोनों के अनुकूल अनुभव से महात्माओं ने अन्य नौ विषयों का बड़ी सुगम रीति से वर्णन किया है । ईश्वर की प्रेरणा से गुणों में क्षोभ होकर रूपान्तर होने से जो आकाशादि पंचभूत, शब्दादि तन्मात्राएँ, इन्द्रियाँ, अहंकार और महतत्व की उत्पत्ति होती है, उसो ‘सर्ग’ कहते हैं। उस विराट् पुरुष से उत्पन्न ब्रम्हाजी के द्वारा जो विभिन्न चराचर सृष्टियों का निर्माण होता है, उसका नाम ‘विसर्ग’। प्रतिपद नाश की ओर बढ़ने वाली सृष्टि को एक मर्यादा में स्थिर रखने से भगवान् विष्णु की जो श्रेष्ठता सिद्ध होती है, उसका नाम ‘स्थान’ है। अपने द्वारा सुरक्षित सृष्टि में भक्तो के ऊपर उनकी जो कृपा होती है, उसका नाम है ‘पोषण’। मन्वन्तरों के अधिपति जो भगवद्भक्ति और प्रजापालन रूप शुद्ध धर्म का अनुष्ठान करते हैं, उसे ‘मन्वन्तर’ कहते हैं। जीवों की वे वासनाएँ, जो कर्म के द्वारा उन्हें बन्धन में डाल देती हैं, ‘ऊति’ नाम से कही जाती हैं । भगवान् के विभिन्न अवतारों के और उनके प्रेमी भक्तों की विविध आख्यानों से युक्त गाथाएँ ‘ईश्कथा’ हैं । जब भगवान् योगनिद्रा स्वीकार करके शयन करते हैं, तब इस जीव का अपनी उपाधियों के साथ उनमें लीन हो जाना ‘निरोध’ है। अज्ञान कल्पित कार्तृत्व, भोगतृत्व आदि अनात्म भाव का परित्याग करके अपने वास्तविक स्वरुप परमात्मा में स्थित होना ही ‘मुक्ति’ है । परीक्षित्! इस चराचर जगत् की उत्पत्ति और प्रलय जिस तत्व से प्रकाशित होते हैं, वह परम ब्रम्ह ही ‘आश्रय’ है। शास्त्रों में उसी को परमात्मा कहा गया है । जो नेत्र आदि इन्द्रियों का अभिमानी द्रष्टा जीव है, वही इन्द्रियों के अधिष्ठातृ देवता सूर्य आदि के रूप में भी हैं और जो नेत्र गोलक आदि से युक्त दृश्य देह है, वही उन दोनों को अलग-अलग करता है । इन तीनों में यदि एक का भी अभाव हो जाय तो दूसरे दो की उपलब्धि नहीं हो सकती। अतः जो इन तीनों को जानता है, वह परमात्मा ही सबका अधिष्ठान ‘आश्रय’ तत्व है। उसका आश्रय वह स्वयं ही है, दूसरा कोई नहीं । जब पूर्वोक्त विराट् पुरुष ब्रम्हाण्ड को फोड़कर निकला, तब वह अपने रहने का स्थान ढूँढने लगा और स्थान की इच्छा से उस शुद्ध-संकल्प पुरुष ने अत्यन्त पवित्र जल की सृष्टि की । विराट् पुरुष रूप ‘नर’ से उत्पन्न होने के कारण ही जल का नाम ‘नार’ पड़ा और उस अपने उत्पन्न किये हुए ‘नार’ में वह पुरुष एक हजार वर्षों तक रहा, इसी से उसका नाम ‘नारायण’ हुआ । उन नारायण भगवान् की कृपा से ही द्रव्य, कर्म, काल, स्वभाव और जीव आदि की सत्ता है। उनके उपेक्षा कर देने पर और किसी का अस्तित्व नहीं रहता । उन अद्वितीय भगवान् नारायण ने योगनिद्रा से जगकर अनेक होने की इच्छा की। तब अपनी माया से उन्होंने अखिल ब्रम्हाण्ड के बीज स्वरुप सुवर्णमय वीर्य को तीन भागों में विभक्त कर दिया—अधिदैव, अध्यात्म और अधिभूत। परीक्षित्! विराट् पुरुष का एक ही वीर्य तीन भागों में कैसे विभक्त हुआ, सो सुनो । विराट् पुरुष के हिलने-डोलने पर उनके शरीर में रहने वाले आकाश से इन्द्रियबल, मनोबल और शरीरबल की उत्पत्ति हुई। उनसे इन सबका राजा प्राण उत्पन्न हुआ ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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