श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय 2 श्लोक 10-20

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द्वितीय स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः (2)

श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 10-20 का हिन्दी अनुवाद
भगवान के स्थूल और सूक्ष्मरूपों की धारणा तथा क्रममुक्ति और सद्दोमुक्ति का वर्णन

उनके चरणकमल योगेश्वरों के खिले हुए हृदयकमल की कर्णिका पर विराजित हैं। उनके ह्रदय पर श्रीवत्स का चिन्ह—एक सुनहरी रेखा है। गले में कौस्तुभमणि लटक रही है। वक्षःस्थल कभी न कुम्हलाने वाली वनमाला घिरा हुआ है । वे कमर में करधनी, अँगुलियों में बहुमूल्य अँगूठी, चरणों में नूपुर और हाथों में कंगन आदि आभूषण धारण किये हुए हैं। उनके बालों की लटें बहुत चिकनी, निर्मल, घुँघराली और नीली हैं। उनका मुखकमल मन्द-मन्द मुसकान से खिल रहा है । लीलापूर्ण उन्मुक्त हास्य और चितवन से शोभायमान भौहों के द्वारा वे भक्तोजनों पर अनन्त अनुग्रह की वर्षा कर रहे हैं। जब तक मन इस धारणा के द्वारा स्थिर न हो जाय, तब तक बार-बार इन चिन्तन स्वरुप भगवान को देखते रहने की चेष्टा करनी चाहिये । भगवान के चरण-कमलों से लेकर उनके मुसकान युक्त मुखकमल पर्यन्त समस्त अंगों की एक-एक करके बुद्धि के द्वारा धारणा करनी चाहिये। जैसे-जैसे बुद्धि शुद्ध होती जायगी, वैसे-वैसे चित्त स्थिर होता जायगा। जब एक अंग का ध्यान ठीक-ठीक होने लगे, तब उसे छोड़कर दूसरे अंग का ध्यान करना चाहिये । ये विश्वेश्वर भगवान का दृश्य नहीं, द्रष्टा हैं। सगुण, निर्गुण—सब कुछ इन्हीं का स्वरुप है। जब तक इनमें अनन्य प्रेममय भक्ति योग न हो जाय तब तक साधक को नित्य-नैमित्तिक कर्मों के बाद एकाग्रता से भगवान के उपर्युक्त स्थूलरूप का ही चिन्तन करना चाहिये । परीक्षित्! जब योगी पुरुष इस मनुष्य लोक को छोड़ना चाहे तब देश और काल में मन को न लगाये। सुख पूर्वक स्थिर आसन से बैठकर प्राणों को जीतकर मन से इन्द्रियों का संयम करे । तदनन्तर अपनी निर्मल बुद्धि से मन को नियमित करके मन के साथ बुद्धि को क्षेत्रज्ञ में और क्षेत्रज्ञ को अन्तरात्मा में लीन कर दे। फिर अन्तरात्मा को परमात्मा में लीन करके धीर पुरुष उस समय शान्तिमय अवस्था में स्थित हो जाय। फिर उसके लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता । इस अवस्था में सत्वगुण भी नहीं है, फिर रजोगुण और तमोगुण की तो बात ही क्या है। अहंकार, महतत्व और प्रकृति का भी वहाँ अस्तित्व नहीं है। उस स्थिति में जब देवताओं के नियामक काल की भी दाल नहीं गलती, तब देवता और उनके अधीन रहने वाले प्राणी तो रह ही कैसे सकते हैं ? योगी लोग ‘यह नहीं, यह नहीं’—इस प्रकार परमात्मा से भिन्न पदार्थों का त्याग करना चाहते हैं और शरीर तथा उसके सम्बन्धी पदार्थों में आत्मबुद्धि का त्याग करके हृदय के द्वारा पद-पद पर भगवान के जिस परम पूज्य स्वरुप का आलिंगन करते हुए अनन्य प्रेम से परिपूर्ण रहते हैं, वही भगवान विष्णु का परम पद है—इस विषय में समस्त शास्त्रों की सम्मति है । ज्ञान दृष्टि के बल से जिसके चित्त की वासना नष्ट हो गयी है, उस ब्रम्हनिष्ठ योगी को इस प्रकार अपने शरीर का त्याग करना चाहिये। पहले एड़ी से अपनी गुदा को दबाकर स्थिर हो जाय और तब बिना घबड़ाहट के प्राण वायु को षट्चक्र भेदन की रीति से ऊपर ले जाय । मनस्वी योगी को चाहिये कि नाभिचक्र मणिपूरक में स्थित वायु को हृदयचक्र अनाहत में, वहाँ से उदानवायु के द्वारा वक्षःस्थल के ऊपर विशुद्ध चक्र में, फिर उस वायु को धीरे-धीरे तालुमूल में (विशुद्ध चक्र के अग्रभाग में) चढ़ा दे ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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