श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय 9 श्लोक 23-34
द्वितीय स्कन्ध: नवम अध्यायः (9)
मैं तपस्या से ही इस संसार की सृष्टि करता हूँ, तपस्या से ही इसका धारण-पोषण करता हूँ और फिर तपस्या से ही इसे अपने में लीन कर लेता हूँ। तपस्या मेरी एक दुर्लंघ्य शक्ति है ।
ब्रम्हाजी ने कहा—भगवन्! आप समस्त प्राणियों के अन्तःकरण में साक्षी रूप से विराजमान रहते हैं। आप अपने अप्रतिहत ज्ञान से यह जानते ही हैं कि मैं क्या करना चाहता हूँ । नाथ! आप कृपा करके मुझ याचक की यह माँग पूरी कीजिये कि मैं रूप रहित आपके सगुण और निर्गुण दोनों ही रूपों को जान सकूँ । आप माया के स्वामी हैं, आपका संकल्प कभी व्यर्थ नहीं होता। जैसे मकड़ी अपने मुँह से जाला निकालकर उसमें क्रीड़ा करती है और फिर उसे अपने में लीन कर लेती है, वैसे ही आप अपनी माया का आश्रय लेकर इस विविध-शक्ति सम्पन्न जगत् की उत्पत्ति, पालन और संहार करने के लिये अपने-आपको ही अनेक रूपों में बना देते हैं और क्रीड़ा करते हैं। इस प्रकार आप कैसे करते हैं—इस मर्म को मैं जान सकूँ, ऐसा ज्ञान आप मुझे दीजिये ।
आप मुझे पर ऐसी कृपा कीजिये कि मैं सजग रहकर सावधानी से आपकी आज्ञा का पालन कर सकूँ और सृष्टि की रचना करते समय भी कर्तापन आदि के अभिमान बँध न जाऊँ ।
प्रभो! आपने एक मित्र के समान हाथ पकड़कर मुझे अपना मित्र स्वीकार किया है। अतः जब मैं आपकी इस सेवा—सृष्टिरचना में लगूँ और सावधानी से पूर्वसृष्टि के गुण-कर्मानुसार जीवों का विभाजन करने लगूँ, तब कहीं अपने को जन्म-कर्म से स्वतन्त्र मानकर प्रबल अभिमान न कर बैठूँ ।
श्रीभगवान् ने कहा—अनुभव, प्रेमाभक्ति और साधनों से युक्त अत्यन्त गोपनीय अपने स्वरुप का ज्ञान मैं तुम्हें कहता हूँ; तुम उसे ग्रहण करो । मेरा जितना विस्तार है, मेरा जो लक्षण है, मेरे जितने और जैसे रूप, गुण और लीलाएँ हैं—मेरी कृपा से तुम उनका तत्व ठीक-ठीक वैसा ही अनुभव करो । सृष्टि के पूर्व केवल मैं-ही-मैं था। मेरे अतिरिक्त न स्थूल था न सूक्ष्म और न तो दोनों का कारण अज्ञान। जहाँ यह सृष्टि है, वहाँ मैं-ही-मैं हूँ और इस सृष्टि के रूप में जो कुछ प्रतीति हो रहा है, वह भी मैं ही हूँ और जो कुछ बच रहेगा, वह भी मैं ही हूँ । वास्तव में न होने पर भी जो कुछ अनिर्वचनीय वस्तु मेरे अतिरिक्त मुझ परमात्मा में दो चन्द्रमाओं की तरह मिथ्या ही प्रतीति हो रही है अथवा विद्यमान होने पर भी आकाश-मण्डल के नक्षत्रों में राहु की भाँति जो मेरी प्रतीति नहीं होती, इसे मेरी माया समझना चाहिये । जैसे प्राणियों के पंचभूतरहित छोटे-बड़े शरीरों में आकाशादि पंचमहाभूत उन शरीरों के कार्य रूप से निर्मित होने के कारण प्रवेश करते भी हैं और पहले से ही उन स्थानों और रूपों में कारण रूप से विद्यमान रहने के कारण प्रवेश नहीं भी करते, वैसे ही उन प्राणियों के शरीर की दृष्टि से मैं उनमें आत्मा के रूप से प्रवेश किये हुए हूँ और आत्मदृष्टि से अपने अतिरिक्त और कोई वस्तु न होने के कारण उनमें प्रविष्ट नहीं भी हूँ ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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