श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 14 श्लोक 35-44
प्रथम स्कन्धःचतुर्दश अध्यायः (14)
वे आदिपुरुष बलरामजी के साथ संसार के परम मंगल, परम कल्याण और उन्नति के लिये यदुवंश रूप क्षीरसागर में विराजमान हैं। उन्हीं के बाहुबल से सुरक्षित द्वारकापुरी में यदुवंशी लोग सारे संसार के द्वारा सम्मानित होकर बड़े आनन्द से विष्णु भगवान के पार्षदों के समान विहार कर रहे हैं । सत्यभामा आदि सोलह हजार रानियाँ प्रधानरूप से उनके चरणकमलों की सेवा में ही रत रहकर उनके द्वारा युद्ध में इन्द्रादि देवताओं को भी हराकर इन्द्राणी के भोग योग्य तथा उन्हीं की अभीष्ट पारिजातादि वस्तुओं का उपभोग करती हैं । यदुवंशी वीर श्रीकृष्ण के बाहुदण्ड के प्रभाव से सुरक्षित रहकर निर्भय रहते हैं और बलपूर्वक लायी हुई बड़े-बड़े देवताओं के बैठने योग्य सुधर्मा सभा को अपने चरणों से आक्रान्त करते हैं । भाई अर्जुन! यह भी बताओ कि तुम स्वयं तो कुशल से हो न ? मुझे तुम श्रीहीन-से दीख रहे हो; वहाँ बहुत दिनों तक रहे, कहीं तुम्हारे सम्मान में तो किसी प्रकार की कमी नहीं हुई ? किसी ने तुम्हारा अपमान तो नहीं कर दिया ? कहीं किसी ने दुर्भावपूर्ण अमंगल शब्द आदि के द्वारा तुम्हारा चित्त तो नहीं दुखाया ? अथवा किसी आशा से तुम्हारे पास आये हुए याचकों को उनकी माँगी हुई वस्तु अथवा अपनी ओर से कुछ देने की प्रतिज्ञा करके भी तुम नहीं दे सके ? तुम सदा शरणागतों की रक्षा करते आये हो; कहीं किसी भी ब्राम्हण, बालक, गौ, बूढ़े, रोगी, अबला अथवा अन्य किसी प्राणी का, जो तुम्हारी शरण में आया हो, तुमने त्याग तो नहीं कर दिया ? कहीं तुमने अगम्या स्त्री से समागम तो नहीं किया ? अथवा गमन करने योग्य स्त्री के साथ असत्कार पूर्वक समागम तो नहीं किया ? कहीं मार्ग में अपने से छोटे अथवा बराबरी वालों से हार तो नहीं गये ? अथवा भोजन कराने योग्य बालक और बूढ़ों को छोड़कर तुमने अकेले ही तो भोजन नहीं कर लिया ? मेरा विश्वास है कि तुमने ऐसा कोई निन्दित काम तो नहीं किया होगा, जो तुम्हारे योग्य न हो । हो-न-हो अपने परम प्रियतम अभिन्न ह्रदय परम सुहृद भगवान श्रीकृष्ण से तुम रहित हो गये हो। इसी से अपने को शून्य मान रहे हो। इसके सिवा दूसरा कोई कारण नहीं हो सकता, जिससे तुमको इतनी मानसिक पीड़ा हो ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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