महाभारत आदि पर्व अध्याय 169 श्लोक 1-18

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एकोनसप्‍तधिकशततम (169) अध्‍याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: एकोनसप्‍तधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

पाण्‍डवों की पञ्जाल-यात्रा और अर्जुन के द्वारा चित्ररथ गन्‍धर्व की पराजय एवं उन दोनों की मित्रता

वैशम्‍पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! भगवान् व्‍यास के चले जाने पर पुरुष श्रेष्‍ठ पाण्‍डव प्रसन्‍नचित्‍त हो अपनी माता को आगे करके वहां से पञ्जालदेश की ओर चल दिये। परंतप ! कुन्‍तीकुमारों ने पहले ही अपने आश्रयदाता ब्राह्मण से पूछकर जाने की आज्ञा ले ली थी और चलते समय बड़े आदर के साथ उन्‍हें प्रणाम किया। वे सब लोग उत्‍तर दिशा की ओर जानेवाले सीधे मार्गो द्वारा उत्‍तराभिमुख हो अपने अभीष्‍ट स्‍थान पञ्जालदेश की ओर बढ़ने लगे। एक दिन और एक रात चलकर वे नरश्रेष्‍ठ पाण्‍डव गंगाजी के तट पर सोमाश्रयायण नामक तीर्थ में जा पहुंचे। उस समय उनके आगे-आगे अर्जुन उजाला तथा रक्षा करने के लिये जलती हुई मशाल उठाये चल र‍हे थे। उस तीर्थ की गंगा के रमणीय तथा एकान्‍त जल में गन्‍धर्वराज अंगापर्ग (चित्ररथ) अपनी स्त्रियों के साथ क्रीड़ा कर रहा था। वह बड़ा ही ईष्‍यालु था और जलक्रीड़ा करने के लिये ही वहां आया था। उसने गंगाजी की ओर बढ़ते हुए पाण्‍डवों के पैरों की धमक सुनी। उस शब्‍द को सुनते ही वह बलवान् गन्‍धर्व क्रोध के आवेश में आकर बड़े जोर से कुपित हो उठा। परंतप पाण्‍डवों को अपनी माता के साथ वहां देख वह अपने भयानक धनुष को टंकारता हुआ इस प्रकार बोला-‘रात्रि प्रारम्‍भ होने के पहले जो पश्चिम दिशा में भंयकर संध्‍या की लाली छा जाती है, उस समय अस्‍सी लवको छोड़कर सारा मुहूर्त इच्‍छानुसार विचरनेवाले यक्षों, गन्‍धर्वों तथा राक्षसों के लिये निश्चित बताया जाता है। शेष दिन का सब समय मनुष्‍यों के कार्यवश विचरने के लिये माना गया है। ‘जो मनुष्‍य लोभवश हम लोगों की वैला में इधर घूमते हुए आ जाते हैं, उन मूर्खो को हम गन्‍धर्व और राक्षस कैंद कर लेते हैं। ‘इसीलिये वेदवेत्‍ता पुरुष रात के समय जल में प्रवेश करनेवाले सम्‍पूर्ण मनुष्‍यों और बलवान् राजाओं की भी निन्‍दा करते हैं। ‘अरे, ओ मनुष्‍यो ! दूर ही खड़े रहो। मेरे समीप न आना। तुम्‍हें ज्ञात कैसे नहीं हुआ कि मैं गन्‍धर्वराज अंगारपर्ण गंगाजी के जल में उतरा हुआ हूं।तुम लोग मुझे (अच्‍छी तरह) जान लो, मैं अपने ही बल का भरोसा करनेवाला स्‍वाभिमानी, ईर्ष्‍यालु तथा कुबेर का प्रिय मित्र हूं। ‘मेरा यह वन भी अंगारपर्ण नाम से ही विख्‍यात है। मैं गंगाजी के तट पर विचरता हुआ इस वन में इच्‍छानुसार विचित्र क्रीडाएं करता रहता हूं। ‘मेरी उपस्थिति में यहां राक्षस, यक्ष, देवता और मनुष्‍य कोई भी नहीं आने पाते; फिर तुम लोग कैसे आ रहे हो ?’ अर्जुन बोले-दुर्भते ! समुद्र, हिमालय की तराई और गंगा नदी के तट पर रात, दिन अथवा संध्‍या के समय किसका अधिकार सुरक्षित है ? आकाशचारी गन्‍धर्व ! सरिताओं में श्रेष्‍ठ गंगाजी के तट पर आने के लिये यह नियम नहीं है कि यहां कोई खाकर आये या बिना खाये, रात में आये या दिन में। इसी प्रकार काल आदि का भी कोर्इ नियम नहीं है। अरे ओ क्रूर ! हम लोग तो शक्तिसम्‍पन्‍न हैं। असमय में भी आकर तुम्‍हें कुचल सकते हैं। जो युद्ध करने में असमर्थ हैं, वे दुर्बल मनुष्‍य ही तुम लोगों की पूजा करते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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