महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 72 श्लोक 58-71

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द्विसप्ततितम (72) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: द्विसप्ततितम अध्याय: श्लोक 58-71 का हिन्दी अनुवाद

भागे हुए शत्रु का पीछा करना अनुबन्ध कहलाता है, यह भी पापपूर्ण कार्य है। मारे जाने वाले शत्रुओं में से कोई-कोई बचा रह जाता है। वह अवशिष्‍ट शत्रु शक्ति का संचय करके विजेता के पक्ष में जो लोग बचे हैं, उनमें से किसी को जीवित नहीं छोडना चाहता। वह शत्रु का अन्त कर डालने की इच्छा से विरोधी दल को सम्पूर्ण रूप से नष्‍ट कर देने का प्रयत्न करता है। विजय की प्राप्ति भी चिरस्थायी शत्रुता की सृष्टि करती है। पराजित पक्ष बडे़ दु:ख से समय बिताता है। जो किसी से शत्रुता न रखकर शान्ति का आश्रय लेता है, वह जय-पराजय-की चिन्ता छोड़कर सुख से सोता है । किसी से वैर बांधने वाला पुरूष सर्वयुक्त गृह में रहने वाले की भांति उद्विग्नचित्त होकर सदा दु:ख की नींद सोता है। जो शत्रु के कुल में आबालवृद्ध सभी पुरूषों का उच्छेद कर डालता है, वह वीरोचति यश से वञ्चित हो जाता है। वह समस्त प्राणियों में सदा बनी रहने वाली अपकीर्ति (निन्दा) का भागी होता है। दीर्घकाल तक मन में दबाये रखने पर भी वैर की आग सर्वथा बुझ नहीं पाती; क्योंकि यदि कोई उस कुल में विद्यमान है,तो उससे पूर्व घटित वैर बढा़ने वाली घटनाओं को बताने वाले बहुत-से लोग मिल जाते है। केशव! जैसे घी डालने पर आग बुझने के बजाय और अधिक प्रज्वलित हो उठती है, उसी प्रकार वैर करने से वैर-की आग शान्त नहीं होती, अधिकाधिक बढ़ती ही जाती है। (क्योंकि दोनों पक्षों में सदा कोई-न-कोई छिद्र मिलने की सम्भावना रहती है) इसलिये दोनों पक्षों मे से एक का सर्वथा नाश हुए बिना पूर्णत: शान्ति प्राप्त होती है। जो लोग छिद्र ढूढ़ते रहते है, उनके सामने यह दोष निरन्तर प्रस्तुत रहता है। यदि अपने में पुरूषार्थ है, तो पूर्व वैर को याद करके जो हृदय को पीड़ा देने वाली प्रबल चिन्ता सदा बनी रहती है, उसे वैराग्यपूर्वक त्याग देने से ही शान्ति मिल सकती है; अथवा मर जाने से ही उस चिन्ता का निवारण हो सकता है। अथवा शत्रुओं को समूल नष्‍ट कर देने से ही अभीष्‍ट फल-की सिद्धि हो सकती है। परंतु मधुसूदन! यह बड़ी क्रूरता का कार्य होगा। राज्य को त्याग देने से उसके बिना जो शान्ति मिलती है, वह भी वध के ही समान है। क्योंकि उस दशा में शत्रुओं से सदा यह संदेह बना रहता है कि ये अवसर देखकर प्रहार करेंगे और धन-सम्पत्ति से वञ्चित होने के कारण अपने विनाश की सम्भावना भी रहती ही है। अत: हम लोग न तो राज्य त्यागना चाहते हैं और न कुल के विनाश की ही इच्छा रखते है। यदि नम्रता दिखाने से भी शान्ति हो जाय तो वही सबसे बढ़कर है। यद्यपि हम युद्ध की इच्छा न रखकर साम, दान और भेद सभी उपायों से राज्य की प्राप्ति के लिये प्रयत्न कर रहे हैं, तथापि यदि हमारी सामनीति असफल हुई तो युद्ध ही हमारा प्रधान कर्तव्य होगा; हम पराक्रम छोड़कर बैठ नहीं सकते। जब शान्ति के प्रयत्नों में बाधा आती है, तब भयंकर युद्ध स्वत: आरम्भ हो जाता है। पण्डितों ने इस युद्ध की उपमा कुत्तों के कलह से दी है। कुत्ते पहले पूंछ हिलाते हैं, फिर गुर्राते और गर्जते हैं। तत्पशचात् एक-दूसरे के निकट पहुंचते हैं। फिर दांत दिखाना और भूकना आरम्भ करते हैं। तत्पश्‍चात् उनमें युद्ध होने लगता है।।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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