महाभारत विराट पर्व अध्याय 31 श्लोक 13-27
एकत्रिंश (31) अध्याय: विराट पर्व (गोहरण पर्व)
मत्स्यदेश के राजा विराट ने अभेद्यकल्प नामक कवच ग्रहण किया, जो किसी भी अस्त्र-शस्त्र से कअ नहीं सकता था। उसमें सूर्य के समान चमकीली सौ फूलियाँ लगी थीं, सौ भँवरें बनी थीं, सौ बिन्दु (सूक्ष्म चक्र) और सौ नेत्र के समान आकार वाले चक्र बने थे। इसके सिवा उसमें नीचे से ऊपर तक सौगन्धिक (कल्हार) जाति के सौ कमलों की आकृतियाँ पंक्तिबद्ध बनी हुई थीं। सेनापति सूर्यदत्त (शतानीक) ने पुष्ठभाग में सुवर्णजटित एवं सूर्य के समान चमकीला कवच पहन रखा था। विराट के ज्येष्ठ पुत्र वीरवर शंख ने श्वेत रंग का एक सुदृढ़ कवच धारण किया, जिसके भीतरी भाग में लोहा लगा था और ऊपर नेत्र के समान सौ चिन्ह बने हुए थे। इसी प्रकार सैंकड़ों देवताओं के समान रूपवान् महारथियों ने युद्ध के लिये उद्यत हो अपने-अपने वैभव के अनुसार कवच पहन लिये। वे सबके सब प्रहार करने में कुशल थे। उन महारथियों ने सुन्दर पहियों वाले विशाल एवं उज्जवल रथों में पृथक्-पृथक् सोने के बक्ष्तर धारण कराये हुए घोड़ों को जोता। मत्स्यराज के सुवर्णमय दिव्य रथ में, जो सूर्य और चन्द्रमा के समान प्रकाशित हो रहा था, उस समय बहुत ऊँची ध्वजा फहराने लगी। इसी प्रकार अन्य शूरवीर क्षत्रियों ने अपने-अपने रथों में यथाशक्ति सुवर्णमण्डित नाना प्रकार की ध्वजाएँ फहरायीं। जब रथ जोते जा रहे थे, उस समय कंक ने राजा विराट से कहा- ‘मैंने भी एक श्रेष्ठ महर्षि से चार मार्गों वाले धनुर्वेद की शिक्षा प्राप्त की है, अतः मैं भी कवच धारण करके रथ्र पर बैठकर गौओं के पदचिन्हों का अनुसरण करूँगा। निष्पाप नरेश ! यह बल्लव नामक रसोइया भी बलवान् एवं शूरवीर दिखाई देता है, इसे गौओं की गणना करने वाले गोशालाध्यक्ष तनितपाल तथा अश्वों की शिक्षा का प्रबन्ध करने वाले ग्रन्थिक को भी रथों पर बिठा दीजिये। मेरा विश्वास है कि ये गौओं के लिये यु;द्ध करने से कदापि मुँ नहीं मोड़ सकते।’ तदनन्तर मत्स्यराज ने अपने छोटे भाई शतानीक से कहा- ‘भैया ! मेरे विचार में यह बात आती है कि ये कंक, बल्लव, तन्तिपाल और ग्रनिथक भी युद्ध कर सकते हैं, इसमें संशय नहीं है। ‘अतः इनके लिये भी ध्वजा और पताकाओं से सुशोभित रथ दो। ये भी अपने अंगों में ऊपर से दृढ़, किंतु भीतर से कोमल कवच धारण कर लें। फिर इन्हें भी सब प्रकार के अस्त्र-शस्त्र अर्पित करो। इनके अंग और स्वरूप वीराचित जान पड़ते हैं। इन वीर पुरुषों की भुजाएँ गजराज की सूँड़दध्ड की भाँति शोभा पाती हैं। ‘ये युद्ध न करते हों, यह कदापि सम्भव नहीं अर्थात् ये अवश्य युद्धकुशल हैं। मेरी बुद्धि का तो ऐसा ही निश्चय है।’ जनमेजय ! राजा का यह वचन सुनकर शतानीक ने उतावले मन से कुन्तीपुत्रों के लिये शीघ्रतापूर्वक रथ लाने का आदेश दिया। सहदेव, राजा युधिष्ठिर, भीम और नकुल इन चारों के लिये रथ लाने की आाा हुई। इस बात से पाण्डव बड़े प्रसन्न थे। तब राजभक्त सारथि महाराज विराट के बताये अनुसार रथों को शीघ्रतापूर्वक जोतकर ले आये। उसके बाद अनायास ही महान् पराक्रम करने वाले पाण्डुपुत्रों को राजा विराट ने अपने हाथ से विचित्र कवच प्रदान किये, जो ऊपर से सुदृढ़ और भीतर से कोतल थे। उन्हें लेकर उन वीरों ने अपने अंगों में यथास्थान बाँध लिया।
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