महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 111 श्लोक 30-44
एकादशाधिकशततम (111) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
जो राजा के आश्रम में रहते हैं, उन्हें राजा की निन्दा से सम्बन्ध रखने वाले सभी दोष प्राप्त होते हैं। इधर मेरे जैसे वनवासियों का व्रतचर्या सर्वथा असंग और भय से रहित होता हैं। राजा जिसे अपने सामने बुलाता हैं, उसके हृदय में जो भय खड़ा होता हैं, वह वन में फल-मूल खाकर संतुष्ट रहने वाले लोगों के मन में नहीं होता है। एक जगह बिना किसी भय के केवल जल मिलता हैं और दूसरी जगह अन्त में भय देने वाला स्वादिष्ट अन्न प्राप्त होता हैं- इन दोनों को यदि विचार करके मैं देखता हूँ तो मुझे वहां ही सुख जान पड़ता हैं, जहां कोई भय नहीं हैं। राजाओं ने किन्हीं वास्तविक अपराधों के कारण उतने सेवकों को दण्ड नहीं दिया होगा, जितने कि लोगों के झूठ लगाये गये दोषों से कलंकित होकर राजा के हाथ से मारे गयें हैं। मृगराज ! यदि आप मुझसे मन्त्रित्व का कार्य लेना ही ठीक समझते हैं तो मैं आपसे एक शर्त कराना चाहता हूँ, उसी के अनुसार आपको मेरे साथ बर्ताव करना उचित होगा। मेरे आत्मीयजनों का आपको सम्मान करना होगा। मेरी कही हुई हितकर बातें आपको सुननी होगीं। मेरे लिये जो जीविका की व्यवस्था आपने की हैं, वह आप ही के पास सुस्थिर एवं सुरक्षित रहे। मैं आपके दूसरे मन्त्रियों के साथ बैठकर कभी कोई परामर्श नहीं करुंगा, क्योंकि दूसरे नीतिज्ञ मन्त्री मुझसे ईर्ष्या करते हुए मेरे प्रति व्यर्थ की बातें कहने लगेंगे । मैं अकेला एकान्त में अकेले आप से मिलकर आपको हित की बातें बताया करुँगा। आप भी अपने जाति-भाइयों के कार्यों से मुझ से हिताहित को बात न पूछियेगा। मुझसे सलाह लेने के बाद यदि आपके पहले के मन्त्रियों की भूल प्रमाणित हो तो उन्हें प्राणदण्ड न दीजियेगा तथा कभी क्रोध में आकर मेरे आत्मीयजनों पर भी प्रहार न कीजियेगा। ‘अच्छा, ऐसा ही होगा’ यह कहकर शेर ने उसका बड़ा सम्मान किया। सियार बाघराजा के बुद्धिदायक सचिव के पद पर प्रतिष्ठित हो गया। सियार बहुत अच्छा कार्य करने लगा और उसको अपने सभी कार्यों में बड़ी प्रशंसा प्राप्त होने लगी। इस प्रकार उसे सम्मानित होता देख पहले के राजसेवक संगठित हो बारंबार उससे द्वेष करने लगे। उनके मन में दुष्टता भरी थी। वे सियार के पास मित्रभाव से आते और उसे समझा-बुझाकर प्रसन्न करके अपने ही समान दोष के पथ पर चलाने की चेष्टा करने लगे। उनके आने के पहले वे और ही प्रकार से रहा करते थे। दूसरों का धन हड़प लिया करते थे, परंतु अब वैसा नहीं कर सकते थे। सियार ने उन सब पर ऐसी कड़ी पाबंदी लगा दी थी कि वे किसी को कोई भी वस्तु लेने में असमर्थ हो गये थे। उनकी यही इच्छा थी कि सियार भी डिग जाय; इसलिये वे तरह-तरह की बातों में उसे फुसलाते और बहुत-सा धन देने का लोभ देकर उसकी बुद्धि को प्रलोभन में फँसाना चाहते थे। परंतु सियार बड़ा बुद्धिमान था। अत: वह उनके प्रलोभन में आकर धैर्य से विचलित नहीं हुआ। तब दूसरे-दूसरे सभी सेवकों ने मिलकर उसके विनाश के लिये प्रतिज्ञा की और तद्नुसार प्रयन्त आरम्भ कर दिया।
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