महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 236 श्लोक 1-8
षटत्रिंशदधिकद्विशततम (236) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
ध्यान के सहायक योग, उनके फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन तथा सांख्य एवं योग के अनुसार ज्ञान द्वारा मोक्ष की प्राप्ति
व्यास जी कहते हैं – वत्स ! मनुष्य जिस प्रकार डूबता-उतराता हुआ जल के प्रवाह में बहता रहता है और यदि संयोगवश कोई नौका मिल गयी तो उसकी सहायता से पार लग जाता है, उसी प्रकार संसार-सागर में डूबता-उतराता हुआ मानव यदि इस संकट से मुक्त होना चाहे तो उसे ज्ञानरूपी नौका का आश्रय लेना चाहिये । जिन्हें बुद्धि द्वारा तत्व का पूर्ण निश्चय हो गया है, वे धीर पुरूष अपनी ज्ञाननौका द्वारा दूसरे अज्ञानियों को भी भवसागर से पार कर देते हैं, परंतु जो अज्ञानी हैं वे नतो दूसरों को तार सकते हैं और नअपना ही किसी प्रकार उद्धार कर पाते हैं । समाहितचित्त मुनि को चाहिये कि वह हृदय के राग आदि दोषों को नष्ट करके योग में सहायता पहॅुचानेवाले देश, कर्म, अनुराग, अर्थ, उपाय, अपाय, निश्चय, चक्षुष्, आहार, संहार, मन और दर्शन इन बारह योगों का आश्रय ले ध्यानयोग का अभ्यास करे[१]। जो उत्तम ज्ञान प्राप्त करना चाहता हो, उसे बुद्धि के द्वारा मन और वाणी को जीतना चाहिये तथा जो अपने द्वारा मन और वाणी को जीतना चाहिये तथा जो अपने लिये शान्ति चाहे, उसे ज्ञान द्वारा बुद्धि को परमात्मा में नियन्त्रित करना चाहिये । मनुष्य अत्यन्त दारूण हो या सम्पूर्ण वेदों का ज्ञाता हो अथवा ब्राह्राण होकर भी वैदिक ज्ञानसे शून्य हो अथवा धर्मपरायण एवं यज्ञशील हो या घोर पापाचारी हो अथवा पुरूषों में सिंह के समान शूरवीर हो या बडे़ कष्ट से जीवन धारण करता हो, वह यदि इन बारह योगों का भलीभॉति साक्षात्कार अर्थात् ज्ञान कर ले तो जरा मृत्यु के परम दुर्गम समुद्र से पार हो जाता है । इस प्रकार सिद्धिपर्यन्त इस योग का अभ्यास करनेवाला पुरूष यदि ब्रह्रा का जिज्ञासु हो तो वेदोक्त सकाम कर्मों की सीमा को लॉघ जाता हैं ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ध्यानयोग के साधक को ऐसे स्थानपर आसन लगाना चाहिये, जो समतल और पवित्र हो । निर्जन वन, गुफाया ऐसा ही कोई एकान्त स्थान ही ध्यानके लिये उपयोगी होता है । ऐेसे स्थानपर आसन लगाने को देशयोग कहते हैं । आहार-विहार, चेष्टा, सोना और जागना- ये सब परिमित और नियमानुकूल होने चाहिये । यही कर्मनामक योग है । परमात्मा एवं उसकी प्राप्ति के साधनों में तीव्र अनुराग रखना अनुरागयोग कहलाता है । केवल आवश्यक सामग्री को ही रखना अर्थयोग है । ध्यानोपयोगी आसन से बैठना उपाययोग है । संसार के विषयो और सगे-सम्बन्धियों से आसक्ति तथा ममता हटा लेने को अपाययोग कहते हैं । गुरू और वेदशास्त्र के वचनों पर विश्वास रखने का नाम निश्चययोग है । चक्षु को नासिका के अग्रभाग पर स्थिर करना चक्षुयोग है । शुद्ध और सात्विक भोजन का नाम है आहारयोग । विषयोंकी ओर होनेवाली मन-इन्द्रियों की स्वाभाविक प्रवृत्ति को रोकना संहारयोग कहलाता है । मन को संकल्प-विकल्प से रहित करके एकाग्र करना मनोयोग है । जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदि होने के समय महान् दु:ख और दोषों का वैराग्यपूर्वक दर्शन करना दर्शनयोग है । जिसे योग के द्वारा सिद्धि प्राप्त करनी हो, उसे इन बारह योगों का अवश्य अवलम्बन करना चाहिये ।