महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 260 श्लोक 1-14
षष्टयधिकद्विशततम (260) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
युधिष्ठिर का धर्म की प्रामाणिकता पर संदेह उपस्थित करना
युधिष्ठिर ने कहा- पितामह ! आपने धर्म का सूक्ष्म एवं सुन्दर लक्षण बताया है; परंतु मुझे कुछ और ही स्फुरित हो रहा है । अत: मैं उसके सम्बन्ध में अनुमान से ही कुछ कहॅूगा। मेरे हृदय में जो बहुत से प्रश्न उठे थे, उन सबका निराकरण आपने कर दिया । महाराज ! अब मैं यह दूसरा प्रश्न उपस्थित कर रहा हॅू । इसमें जिज्ञासा ही कारण है, दुराग्रह नहीं। भरतनन्दन ! धर्म ही इन प्राणियों की सृष्टि करते हैं । धर्म ही उनके जीवधारण और उद्धार में कारण होते हैं; परंतु धर्म को केवल वेदों के पाठमात्र से नहीं जाना जा सकता। जो मनुष्य अच्छी स्थिति में है, उसका धर्म दूसरा है और जो संकट में पड़ा हुआ है, उसका धर्म दूसरा ही है । केवल वेदों के पाठ से आपद्धर्म का ज्ञान कैसे हो सकता है ? आपके कथनानुसार सत्पुरूषों का आचरण धर्म माना गया है और जिनमे धर्माचरण लक्षित होता है, वे ही सत्पुरूष हैं । ऐसी दशा में अन्योन्याश्रय दोष पड़ने के कारण साध्य और असाध्यका विवेक कैसे हो सकता है ? ऐसी दशा में सदाचार धर्म का लक्षण नहीं हो सकता। इस लोक में देखा जाता है कि कितने ही प्राकृत मनुष्य धर्म से दिखायी देनेवाले अधर्म का आचरण करते हैं और कितने ही अप्राकृत (शिष्ट) पुरूष अधर्म प्रतीत होनेवाले धर्म का अनुष्ठान करते हैं (अत: केवल आचार से धर्माधर्म का निर्णय नहीं हो सकता)। शास्त्रज्ञ पुरूषों ने धर्म में वेद को ही प्रमाण बताया है; किंतु हमने सुना है कि युग-युग में वेदों का ह्रास होता है अर्थात् धर्म के सम्बन्ध में जो वेदों का निश्चय है, वह प्रत्येक युग में बदलता रहता है। सत्ययुग के धर्म कुछ और हैं, त्रेता और द्वापर के धर्म कुछ और ही हैं और कलियुग के धर्म कुछ और ही बताये गये हैं । मानो मुनियों ने लोगों की शक्ति के अनुसार ही धर्म की व्यवस्था की है। वेदों का वचन सत्य है, यह कथन लोकरंजनमात्र है । वेदों से ही सर्वतोमुखी स्मृतियों का प्रचार और प्रसार हुआ है। यदि सम्पूर्ण वेद प्रामाणिक हैं तो स्मृतियॉ भी प्रामाणिक हो सकती हैं; परंतु जब (युग-युग में धर्म के विषय में विभिन्न प्रकार की बात कहने से) प्रमाणभूत वेद भी अप्रामाणिक हो तो वेदमूलक स्मृतियॉ भी प्रामाणिक नहीं रहेगी । यदि स्मृति का श्रुति के साथ विरोध हो तो उसमें शास्त्रत्व कैसे रह सकता है ? जब धर्म का अनुष्ठान हो रहा हो, उस समय बलवान् दुरात्माओं द्वारा उसमें जो-जो विकृति उत्पन्न की जाती है, उसके कारण उस धर्ममर्यादा का ही लोप हो जाता है। हम धर्मको जानते हों या न जानते हों,धर्मस्वरूप जाना जा सकताहो या नहीं; इतना तो हम समझते ही हैं कि धर्म छूरे की धार से भी सूक्ष्म और पर्वत से भी अधिक विशाल एवं भारी है। धर्म केविषय में जब आलोचना की जाती है, तब पहले तो वह गन्धर्वनगर के समान दिखायी देता है; फिर चिद्वानों द्वारा विशेष रूप से विचार करनेपर यह प्रतीत होताहैकि वह अदृश्य हो गया। भरतनन्दन ! जैसेबहुत सी गौओ को पानी पिलाने से निपान (क्षुद्र जलाशय)सूख जाते हैं तथा जैसे अधिक खेतों की सिंचाई करने से नहरों का पानीनिपट जाता है, उसी प्रकारसनातन वैदिक धर्म अथवास्मृति शास्त्र धीरे-धीरे क्षीण होकर कलियुग के अन्तिम भाग में दिखायी ही नहीं देता है।
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