महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 299 श्लोक 40-45

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नवनवत्‍यधिकद्विशततम (299) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: नवनवत्‍यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 40-45 का हिन्दी अनुवाद

हंस ने कहा – देवताओ ! अज्ञान ने इस लोक को आवृत कर रखा है। आपस में डाह होने के कारण इसका स्‍वरूप प्रकाशित नहीं होता । मनुष्‍य लोभ से मित्रों का त्‍याग करता है और आसक्ति दोष के कारण वह स्‍वर्ग में नहीं जाने पाता । साध्‍यों ने पूछा – हंस ! ब्राह्मणों में कौन एकमात्र सुख का अनुभव करता है ? वह कौन ऐसा एक मनुष्‍य है, जो बहुतो के साथ रहकर भीचुप रहता है ? वह कौन एक मनुष्‍य है, जो दुर्बल होने पर भी बलवान है तथा इनमें कौन ऐसा है, जो किसी के साथ कलह नहीं करता ? हंस ने कहा – देवताओं ! ब्राह्मणों में जो ज्ञानी है, एकमात्र वही परम सुख का अनुभव करता है। ज्ञानी ही बहुतों के साथ रहकर भी मौन रहता है। एकमात्र ज्ञानी दुर्बल होने पर भी मौन रहता है। एकमात्र ज्ञानी दुर्बल होने पर भी बलवान है और इनमें ज्ञानी ही किसी के साथ कलह नहीं करता है । साध्‍यों ने पूछा – हंस ! ब्राह्मणों का देवत्‍व क्‍या है ? उनमें साधुता क्‍या बतायी जाती है ? उनके भीतर असाधुता और मनुष्‍यता क्‍या मानी गयी है ? हंस ने कहा- साध्‍यगण ! वेद-शास्‍त्रों का स्‍वाध्‍याय ही ब्राह्मणों का देवत्‍व है । उत्‍तम व्रतों का पालन करना ही उनमें साधुता बतायी जाती है। दूसरों की निन्‍दा करना ही उनकी असाधुता है और मृत्‍यु को प्राप्‍त होना ही उनकी मनुष्‍यता बतायी गयी है । भीष्‍म जी कहते हैं- युधिष्ठिर ! ऐसा कहकर नित्‍य अविनाशी परमदेव भगवान ब्रह्मा साध्‍य देवताओं के साथ ही ऊपर स्‍वर्ग लोक की ओर चल दिये । सर्वश्रेष्‍ठ अविनाशी देवाधिदेव ब्रह्माजी के द्वारा प्रकाश में लाया हुआ यह पुण्‍यमय तत्‍व ज्ञान यश और आयु की वृद्धि करने वाला है तथा यह स्‍वर्ग लोक की प्राप्ति का निश्चित साधन है। युधिष्ठिर ! इस प्रकार साध्‍यों के साथ जो हंस का संवाद हुआ था, उसका मैंने तुमसे वर्णन किया। यह शरीर ही कर्मों की योनि है और सद्भभाव को ही सत्‍य कहते हैं ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तर्गत मोक्षधर्मपर्व में हंसगीता की समाप्ति विषयक दो सौ निन्‍यानबेवाँ अध्‍याय पूरा हुआ ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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