"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 146 श्लोक 60-81" के अवतरणों में अंतर

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षट्चत्वारिंशदधिकशततम (146) अध्याय: द्रोणपर्व (जयद्रथवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: षट्चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 60-81 का हिन्दी अनुवाद

धनंजय के बाणों से आहत हो अग्निशिखा के समान तेजस्वी वह सिंधुराज का महान वाराह ध्वज दण्ड कट जाने से पृथ्वी पर गिर पड़ा। राजन ! इसी समय जब कि सूर्यदेव तीव्रगति से अस्ताचल की ओर जा रहे थे, अतावले हुए भगवान् श्रीकृष्ण ने पाण्डुपुत्र अर्जुन से कहा-। महाबाहु पार्थ ! यह सिंधुराज जयद्रथ प्राण बचाने की इच्छा से भयभीत होकर खड़ा है और उसे छः वीर महारथियों ने अपने बीच में कर रखा है। नरश्रेष्ठ अर्जुन ! रणभूमि में इन छः महारथियों को परास्त किये बिना सिंधुराज को बिना माया के जीता नहीं जा सकता है। अतः मैं यहां सूर्यदेव को ढकने के लिये कोई युक्ति करूंगा, जिससे अकेला सिंधुराज ही सूर्य को स्पष्ट रूप से अस्त हुआ देखेगा। प्रभो ! वह दुराचारी हर्षपूर्वक अपने जीवन की अभिलाषा रखते हुए तुम्हारे विनाश के लिये उतावला होकर किसी प्रकार भी अपने आपको गुप्त नहीं रख सकेगा। कुरुश्रेष्ठ ! वैसा अवसर आने पर तुम्हें अवश्य उसके ऊपर प्रहार करना चाहिये। इस बात पर ध्यान नहीं देना चाहिये कि सूर्यदेव अस्त हो गये। यह सुनकर अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा-‘प्रभो ! ऐसा ही हो।’ तब योगी, योगयुक्त और योगीश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने सूर्य को छिपाने के लिये अन्धकार की सृष्टि की। नरेश्वर ! श्रीकृष्ण द्वारा अन्धकार की सृष्टि होने पर सूर्यदेव अस्त हो गये, ऐसा मानते हुए आपके योद्धा अर्जुन का विनाश निकट देख हर्षमग्न हो गये। राजन ! उस रणक्षेत्र में हर्षमग्न हुए आपके सैनिकों ने सूर्य की ओर देखा तक नहीं। केवल राजा जयद्रथ उस समय बारंबार मुंह ऊंचा करके सूर्य की ओर देख रहा था। जब इस प्रकार सिंधुराज दिवाकर की ओर देखने लगा, तब भगवान श्रीकृष्ण पुनः अर्जुन से इस प्रकार बोले-। भरतश्रेष्ठ ! देखो, यह वीर सिंधुराज अब तुम्हारा भय छोड़कर सूर्यदेव की ओर दृष्टिपात कर रहा है। महाबाहो ! इस दुरात्मा के वध का यही अवसर है। तुम शीघ्र इसका मस्तक काट डालो और अपनी प्रतिज्ञा सफल करो। श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर प्रतापी पाण्डुपुत्र अर्जुन ने सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी बाणों द्वारा आपकी सेना का वध आरम्भ किया। उन्होंने कृपाचार्य को बीस, कर्ण को पचास तथा शल्य और दुर्योधन को छः छः बाण मारे। साथ ही वृषसेन को आठ और सिंधुराज जयद्रथ को साठ बाणों से घायल कर दिया। राजन ! इसी प्रकार महाबाहु पाण्डुनन्दन अर्जुन ने आपके अन्य सैनिकों को भी बाणों द्वारा गहरी चोट पहुंचाकर जयद्रथ पर धावा किया।अपनी लपटों से सबको चाट जाने वाली आग के समान अर्जुन को निकट खड़ा जयद्रथ के रक्षक भारी संशय में पड़ गये। महाराज! उस समय विजय की अभिलाषा रखने वाले आपके समस्त योद्धा युद्धस्थल में इन्द्रकुमार अर्जुन का बाणों की धाराओं से अभिषेक करने लगे। इस प्रकार बारम्‍बार बाण समूहों से आच्छादित किये जाने पर कुरूकुल को आनन्दित करने वाले अपराजित वीर कुन्तीकुमार महाबाहु अर्जुन अत्यन्त कुपित हो उठे। फिर उन पुरूषसिंह इन्द्रकुमार ने आपकी सेना के संहार की इच्छा से बाणों का भयंकर जाल बिछाना आरम्भ किया। राजन उस समय रणभूमि में वीर अर्जुन की मार खाने वाले योद्धा भयभीत हो सिंधुराज को छोड़ भाग चले। ये इतने डर गये थे कि दो सैनिक भी एक साथ नहीं भागते थे।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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