"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 182 श्लोक 1-16" के अवतरणों में अंतर

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द्वयशीत्यधिकशततम (182) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: द्वयशीत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्‍पत्ति का और विभिन्‍न तत्त्‍वों का वर्णन

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! इस सम्‍पूर्ण स्‍थावर–जंगम जगत् की उत्‍पति कहां से हुई है? प्रलयकाल में यह किसमें लीन होता है? यह मुझे बताइये। समुद्र, आकाश, पर्वत, मेघ, भूमि, अग्नि और वायुसहित इस संसार का किसने निर्माण किया है? प्राणियों की सृष्टि किस प्रकार हुई? वर्णों का विभाग किस तरह किया गया? उनमें शौच और अशौच की व्‍यवस्‍था कैसे हुई? तथा धर्म और अधर्म का विधान किस प्रकार किया गया? जीवित प्राणियों का जीवात्‍मा कैसा है? जो मर गये, वे कहां चले जाते हैं? इस लोक से उस लोक में जाने का क्रम क्‍या है? ये सब बातें आप हमें बतावें। भीष्‍म जी बोले- राजन्! विज्ञ पुरूष इस विषय में एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं, जिसमें भरद्वाज के प्रश्‍न करने पर भृगु के उपदेश का उल्‍लेख हुआ है। कैलास पर्वत के शिखर पर अपने तेज से देदीप्‍यमान होते हुए महातेजस्‍वी महर्षि भृगु को बैठा देख भरद्वाज मुनिने पूछा- ‘समुद्र, आकाश, पर्वत, मेघ, भूमि, अग्नि और वायुसहित इस संसार का किसने निर्माण किया है? ‘प्राणियों की सृष्टि किस प्रकार हुई? वर्णों का विभाग किस तरह किया गया ? उनमें शौच और अशौच की व्‍यवस्‍था कैसे हुई? तथा धर्म और अधर्म का विधान किस प्रकार किया गया? ‘जीवित प्राणियों का जीवात्‍मा कैसा है? जो मर गये, वे कहां चले जाते हैं? तथा यह लोक और परलोक कैसा है? यह सब मुझे बताने की कृपा करें’। भरद्वाज मुनि के इस प्रकार अपना संशय पूछने पर ब्रह्माजी के समान तेजस्‍वी ब्राह्मर्षि भगवान् भृगुने उन्‍हें सब कुछ बताया। भृगु बोले- ब्रह्मन्! भगवान् नारायण सम्‍पूर्ण जगत्स्वरूप हैं।वे ही सबके अन्‍तरात्‍मा और सनातन पुरूष हैं। वे ही कूटस्‍थ, अविनाशी, अव्‍यक्‍त, निर्लेप, सर्वव्‍यापी, प्रभु, प्रकृति से परे और इन्द्रियातीत हैं। उन भगवान् नारायण के हृदय में जब सृष्टिविषयक संकल्‍प का उदय हुआ तो उन्‍होंने अपने हजारवें अंश से एक पुरूष को उत्‍पन्‍न किया, महर्षियों ने सर्वप्रथम जिसको इसी नाम से सुना था, जो मानसपुरूष के नाम से प्रसिद्ध है। पूर्वकाल में उत्‍पन्‍न वह मानसदेव अनादि, अनन्‍त अभेघ,अजर और अमर है। उसी की अव्‍यक्‍त नाम से प्रसिद्धि हैं। वही शाश्‍वत, अक्षय और अविनाशी हैं। उससे उत्‍पन्‍न सब प्राणी जन्‍मते और मरते रहते हैं। उस स्‍वयम्‍भू देव ने पहले महत्तत्व (समष्टि बुद्धि ) की रचना की। फिर उस महत्तत्‍वस्‍वरूप भगवान् ने अहंकार (समष्टि अंहकार ) की सृष्टि की। सम्‍पूर्ण भूतों को धारण करने वाले अहंकारस्‍वरूप भगवान् शब्‍दतन्‍मात्रा रूप आकाश को उत्‍पन्‍न किया। आकाश से जल और जल से अग्नि एवं वायु की उत्‍पति हुई। अग्नि और वायु के संयोग से इस पृ‍थ्‍वी का प्रादुर्भाव हुआ । उसके बाद उस स्‍वयम्‍भू मानसदेव ने पहले एक तेजोमय दिव्‍य कमल उत्‍पन्‍न किया। उसी कमल से वेदमय निधिरूप ब्रह्माजी प्रकट हुए । वे अहंकार नाम से भी विख्‍यात हैं और समस्‍त भूतों के आत्‍मा तथा उन भूतों की सृष्टि करने वाले हैं। ये जो पांच महाभूत हैं, इनके रूप में महातेजस्‍वी ब्रह्मा ही प्रकट हुए हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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