"महाभारत आदि पर्व अध्याय 197 श्लोक 1-13" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आदि पर्व: सप्‍तनवत्‍यधिकशतत अध्‍याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद</div>
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बाहर चले गयें। इसी क्रम से कौरव-कुल की वृद्धि करनेवाले, उत्‍तम शोभा धारण करनेवाले महारथी राजकुमार पाण्‍डवों ने एक-एक दिन परम सुन्‍दरी द्रौपदी का पाणिग्रहण किया।
 
बाहर चले गयें। इसी क्रम से कौरव-कुल की वृद्धि करनेवाले, उत्‍तम शोभा धारण करनेवाले महारथी राजकुमार पाण्‍डवों ने एक-एक दिन परम सुन्‍दरी द्रौपदी का पाणिग्रहण किया।
  
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

०९:५९, १७ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

सप्‍तनवत्‍यधिकशतत (197) अध्‍याय: आदि पर्व (वैवाहिक पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: सप्‍तनवत्‍यधिकशतत अध्‍याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद


द्रौपदी का पांचों पाण्‍डवों के साथ विवाह द्रुपद बोले- ‘ब्रह्मर्षे ! आपके इस वचन को न सुनने के कारण ही पहले मैंने वैसा करने (कृष्‍णा को एक ही योग्‍य पति से ब्‍याह ने) का प्रयत्‍न किया था; परंतु विधाता ने जो रच रक्‍खा है, उसे टाल देना असम्‍भव है; अत: उसी पूर्व निश्चित विधान का पालन करना उचित है। भाग्‍य में जो लिख दिया है, उसे कोई भी बदल नहीं सकता। अपने प्रयत्‍न से यहां कुछ नहीं हो सकता। एक वर की प्राप्ति के लिये जो साधन (तप) किया गया, वही पांच पतियों की प्राप्ति का कारण बन गया; अत: दैव के द्वारा पूर्वनिश्चित विधान का पालन करना उचित है । पूर्वजन्‍म में कृष्‍णा ने अनेक बार भगवान् शंकर से कहा- ‘प्रभो ! मुझे पति दें।‘ जैसा उसने कहा, वैसा ही वर उन्‍होंने भी उसे दे दिया। अत: इसमें कौन-सा उत्‍तम रहस्‍य छिपा है, उसे वे भगवान् ही जानते है। यदि साक्षात् शंकर ने ऐसा विधान किया है तो वह धर्म हो या अधर्म, इसमें मेरा कोई अपराध नहीं है। वे पाण्‍डव लोग विधिपूर्वक प्रसन्‍नता से इसका पाणिग्रहण करें; विधाता ने ही कृष्‍णा को इन पाण्‍डवों की पत्‍नी बनाया है। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! तदनन्‍तर भगवान् व्‍यास ने धर्मराज युधिष्ठिर से कहा- ‘पाण्‍डुनन्‍दन ! आज ही तुम लोगों के लिये पुण्‍य-दिवस है। आज चन्‍द्रमा भरण-पोषणकारक पुष्‍य नक्षत्र पर जा रहे हैं; इसलिये आज पहले तुम्‍हीं कृष्‍णा का पाणिग्रहण करो’। व्‍यासजी का आदेश सुनकर पुत्रोंसहित राजा द्रुपद ने वर-वधू के लिये कथित समस्‍त उत्‍तम वस्‍तुओं को मंगवाया और अपनी पुत्री कृष्‍णा को स्‍नान कराकर बहुत-से रत्‍नमय आभूषणों-द्वारा विभूषित किया। तत्‍पश्‍चात् राजा के सभी सुह्रद-सम्‍बन्‍धी, मन्‍त्री, ब्राह्मण और पुरवासी अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न हो विवाह देखने के लिये आये और बड़ों को आगे करके बैठे । तदनन्‍तर राजा द्रुपद का वह भवन श्रेष्‍ठ पुरुषों से सुशोभि‍त होने लगा। उसके आंगन को विस्‍तृत कमल और उत्‍पल आदि से सजाया गया था। वहां एक ओर सेनाएं खड़ी थीं और दूसरी ओर रत्‍नों का ढेर लगा था। इससे वह राजभवन निर्मल तारकाओं से संयुक्‍त आकाश की भांति विचित्र शोभा धारण कर रहा था। इधर युवावस्‍था से सम्‍पन्‍न कौरव-राजकुमार पाण्‍डव वस्‍त्राभूषणों से विभूषित और कुण्‍डलों से अलंकृत हो अभिषेक और मंगलाचार करके बहूमुल्‍य कपड़ों एवं केसर, चन्‍दन से सुशोभित हुए। तब अग्नि के समान तेजस्‍वी अपने पुरोहित धौम्‍यजी के साथ विधिपूर्वक बड़े-छोटे के क्रम से वे सभी प्रसन्‍नतापूर्वक विवाह मण्‍डप में गये-ठीक उसी तरह, जैसे बड़े-बड़े सांड गोशाला में प्रवेश करें। तत्‍पश्‍चात् वेद के पारंगत विद्वान मन्‍त्रज्ञ पुरोहित धौम्‍य ने (वेदी पर) प्रज्‍वलित अग्नि की स्‍थापना करके उसमें मन्‍त्रों द्वारा आहुती दी और युधिष्ठिर को बुलाकर कृष्‍णा के साथ उनका गंठबन्‍धन कर दिया। वेदों के परिपूर्ण विद्वान पुरोहित ने उन दोनों दम्‍पति का पाणिग्रहण कराकर उनसे अग्नि की परिक्रमा करवायी, फिर (अन्‍य शास्‍त्रोक्‍त विधियों का अनुष्‍ठान करके) उनका विवाह कार्य सम्‍पन्‍न कर दिया। इसके बाद संग्राम में शोभा पानेवाले युधिष्ठिर को छुट्टी देकर पुरोहितजी भी उस राजभवन से बाहर चले गयें। इसी क्रम से कौरव-कुल की वृद्धि करनेवाले, उत्‍तम शोभा धारण करनेवाले महारथी राजकुमार पाण्‍डवों ने एक-एक दिन परम सुन्‍दरी द्रौपदी का पाणिग्रहण किया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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