"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 22": अवतरणों में अंतर

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०८:३२, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

गीता-प्रबंध
3.मानव-शिष्य

इसलिये अर्जुन गांडीव धनुष और कभी खाली न होने वाला तरकस, जिनको देवताओं ने उसको इस विषम घड़ी के लिये दिया था, नीचे रखकर पुकार उठता है, ’मेरा कल्याण तो इसी में अधिक है कि धृतराष्ट्र के पुत्र मुझ शस्त्रहीन और विरोध ना करने वाले को मार डालें ! मैं तो युद्ध नहीं करूंगा।’ अतएव, अर्जुन के ऊपर जो यह आंतरिक संकट आया उसका हरण किसी रहस्वादी जिज्ञासु कि अंदर उठने वाला कोई प्रश्न नहीं है, न यह इस कारण से ही पैदा ? हुआ है कि अर्जुन के जीवन के दृश्यों से घबराकर अपनी दृष्टि को वस्तुओं के सत्य की, स्थिति के यथार्थ आशय की खोज में और इस जगत् की अंधेरी पहेली को सुलझाने या उससे बचने के लिये अंर्तमुखी करना चाहता हो, यह तो उस मनुष्य के इन्द्रिय, मन, प्राण, हृदय और धर्म-बुद्धि का विद्रोह है जो अब तक निश्चित भाव से कर्म और उसके प्रचालित मान दंड से संतुष्ट रहा है। पर इस मानदंड और कर्मों ने उसे एक ऐसे भीषण विप्लव में लाकर झोंक दिया है कि यहां वे कर्म और उनके वे मानदंड एक-दूसरे के और स्वयं अपने भी भयंकर विरोधी हो गये हैं आचार का कोई आधार नहीं रह गया जिस पर वह खड़ा हो सके, जिसके सहारे वह चल सके, अर्थात् कोई धर्म नहीं रह गया।[१]
मनोमय कर्मी पुरुष के ऊपर आने वाली सबसे बड़ी आपत्ति यही है, यही उसकी सबसे बड़ी च्युति और अवनति है। इस विद्रोह का स्वरूप सहज और स्वाभाविक है; इन्द्रियों और मन का विद्रोह यों कि ये भय, अनुकंपा और जुगुप्सा से विवश हो गये हैं विवश हो गये हैं, प्राणों का विद्रोह यों कि कर्म के इष्ट और सुपरिचित उद्देश्यों में और जीवन कि ध्येय में कोई आकर्षण, कोई श्रद्धा नहीं रह गयी, हृदय का विद्रोह यों कि समाज के अंग भूत मनुष्य मात्र मे हृदय में स्नेह, श्रद्धा, सबके लिये समान सुख और संतोष की इच्छा आदि जो भाव होते हैं, वे ही उस कठोर कर्तव्य के विरूद्ध खड़े हो गये, क्योंकि उस कर्तव्य से ये भाव कुचले जाने लगे; धर्म-बुद्धि का विद्रोह यों कि पाप और नरक की मौलिक भावनाएं उठ खड़ी हुईं और रूधिर-प्रदिग्ध भोग कहकर युद्ध से हटने का तकाजा करने लगीं; प्रकृति व्यवहार की दृष्टि से विद्रोह यों कि धर्माधर्म-विचार के इस मान दंड को मानने का फल यह दीख पड़ा है कि धर्म-कर्म का जो प्राकृत उद्देश्य है, वही इससे नष्ट हुआ जाता है। पर सबक परिणाम यह रहा कि अर्जुन के सर्वांतःकरण का दिवाला निकल गया और कार्पण्यदोषोपहत-स्वभाव कहकर अर्जुन अपनी इसी अवस्था को प्रकट करता है, न केवल उसका विचार, बल्कि उसका हृदय, उसकी प्राणगत वासनाएं, उसकी संर्पूण चेतना ही उपहत हो गयी और धर्मसंमूढचेताः हो गया- धर्म का उसे कहीं पता नहीं चला, क्या करें और क्या न करें इसको स्थिर करने का कोई पैमाना नहीं मिला। बस, इसीलिये वह शिष्य होकर श्रीकृष्ण की शरण में आता है और वह यथार्थ प्रार्थना करता है कि मुझे वह वस्तु दीजिये जिसको मैंने खो दिया है, एक सच्चा धर्म दीजिये, धर्म का एक स्पष्ट विधान बता दीजिये, एक मार्ग दिखा दीजिये जिसके सहारे मैं फिर दुबारा निश्चय के साथ चल सकूं।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. धर्म शब्द का धात्वर्थ धारण करना है-अर्थात् धर्म माने वह विधि, मान, नियम और जीवन धारण किया जाता है और जो सब पदार्थों को एकत्र धारण करता है।

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