"महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 33": अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: सभा पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: भाग 33 का हिन्दी अनुवाद </div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: सभा पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: भाग 33 का हिन्दी अनुवाद </div>


उनके गृहोंद्यान में स्वच्छ जल से भरे हुए कुण्डवाली कितनी ही कृत्रिम नदियाँ प्रवाहित होती रहती हैं, जो प्रफुल्ल उत्पलयुक्त जल से परिपूर्ण है तथा जिनहें दोनों ओर से अनेक प्रकार के वृक्षों ने घेर रखा है। उस भवन के उद्यान की सीमा में मणिमय कंकड् और बालुकाओं से सुशोभित नदियाँ निकाली गयी हैं, जहाँ मतवाले मयूरों के झंड विचरते हैं और मदोन्मत्त कोकिलाएँ कुहू कुहू किया करती हैं। उन गृहोंद्यान में जगत के सभी श्रेष्ठ पर्वत अंशत: संगृहीत हुए हैं। वहाँ हाथियों के यूथ तथा गाया भैसों के झुंंड रहते है। वहीं जंगली सूअर, मृग और पक्षियों के रहने योज्य निवास स्थान भी बनाये गये हैं। विश्वकर्मा द्वारा निर्मित पर्वत माला ही उस विशाल भवन की चहारदीवारी है। उसकी ऊँचाई सौ हाथ की है और वह चन्द्रमा के समान अपनी श्वेत छटा छिटकाती रहती है। पूर्वोक्त बड़े-बड़े पर्वत, सरिताएँ, सरोवर और प्रासाद के समीपवर्ती वन उपवन इस चहारदीवारी से घिरे हुए हैं। इस प्रकार शिल्पियों में श्रेष्ठ विश्वकर्मा द्वारा बनाये हुए द्वारका नगर में प्रवेश करते समय भगवान् श्रीकृष्ण ने बांर बार सब ओर दृष्टिपात किया। देवताओं के साथ श्रीमान् इन्द्र ने वहाँ द्वारका को सब ओर दृष्टि दौड़ाते हुए देखा। इस प्रकार उपेन्द्र (श्रीकृष्ण), बलराम तथा महायशस्वी इन्द्र इन तीनों श्रेष्ठ महापुरुषों ने द्वारकापुरी की शोभा देखी। तदनन्तर गरुड के ऊपर बैठे हुए भगवान श्रीकृष्ण ने प्रसन्नतापर्वूक श्वेत वर्ण वाले अपने उस पांचजन्य शंख को बजाया, जो शत्रुओं के रोंगटे खड़े कर देने वाला है। उस घोर शंकध्वनि से समुद्र विक्षुब्ध हो उठा तथा सारा आकशमण्डल गूँजने लगा। उस समय वहाँ यह अद्भुत बात हुई। पांचजन्य का गम्भीर घोस सुनकर और गरुड का दर्शन कर कुकुर और अन्धकवंशी यादव शोक रहित हो गये। भगवान श्रीकृष्ण के हाथों में शंख, चक्र और गदा आदि आयुध सुशोभित थे। वे गरुड के ऊपर बैठे थे। उनका तेज सूर्योदय के समान नूतन चेतना और उत्साह पैदा करने वाला था। उन्हें देखकर सबको बड़ा हर्ष हुआ। तदनन्तर तुरही और भेरियाँ बज उठीं। समस्त पुरवासी भी सिंहनाद कर उठे। उस समय दशार्ह, कुकुर और अन्धकवंश के सब लोग भगवान मधूसूदन का दर्शन करके बड़े प्रसन्न हुए और सभी उनकी अगवानी के लिये आ गये। राज उग्रसेन भगवान वासुदेव को आगे करके वेणुनाद और शंखध्वनि के साथ उनके महल तक उन्हें पहुँचाने के लिये गये। देवकी, रोहिणी तथा उग्रसेन की स्त्रियाँ अपने-अपने महलों में भगवान श्रीकृष्ण का अभिनन्दन करने के लिये यथा स्थान खड़ी थीं। पास आने पर उन सबने उनका यथावत सत्कार किया। वे आशीर्वाद देती हुई इस प्रकार बोलीं- ‘समस्त ब्राह्मण द्वेषी असुर मारे गये, अन्धक और वृष्णिवंश के वीर सर्वत्र विजयी हो रहे हैं।’ स्त्रियों ने भगवान मधुसूदन से ऐसा कहरक उनकी ओर देखा। तदनन्तर श्रीकृष्ण गरुड के द्वारा ही अपने महल में गये। वहाँ उन परमेश्वर ने एक उपयुक्त स्थान में मणिपर्वत को स्थापित कर दिया। इसके बाद कमलनयन मधुसूदन ने सभा भवन में धन और रत्नों को रखकर मन ही मन पिता के दर्शन की अभिलाषा की। फिर विशाल एवं कुछ लाल नेत्रों वाले उन महायशस्वी महाबाहु ने पहले मन ही मन गुरु सान्दीपनि के चरणों का स्पर्श किया।
उनके गृहोंद्यान में स्वच्छ जल से भरे हुए कुण्डवाली कितनी ही कृत्रिम नदियाँ प्रवाहित होती रहती हैं, जो प्रफुल्ल उत्पलयुक्त जल से परिपूर्ण है तथा जिनहें दोनों ओर से अनेक प्रकार के वृक्षों ने घेर रखा है। उस भवन के उद्यान की सीमा में मणिमय कंकड् और बालुकाओं से सुशोभित नदियाँ निकाली गयी हैं, जहाँ मतवाले मयूरों के झंड विचरते हैं और मदोन्मत्त कोकिलाएँ कुहू कुहू किया करती हैं। उन गृहोंद्यान में जगत के सभी श्रेष्ठ पर्वत अंशत: संगृहीत हुए हैं। वहाँ हाथियों के यूथ तथा गाया भैसों के झुंंड रहते है। वहीं जंगली सूअर, मृग और पक्षियों के रहने योज्य निवास स्थान भी बनाये गये हैं। विश्वकर्मा द्वारा निर्मित पर्वत माला ही उस विशाल भवन की चहारदीवारी है। उसकी ऊँचाई सौ हाथ की है और वह चन्द्रमा के समान अपनी श्वेत छटा छिटकाती रहती है। पूर्वोक्त बड़े-बड़े पर्वत, सरिताएँ, सरोवर और प्रासाद के समीपवर्ती वन उपवन इस चहारदीवारी से घिरे हुए हैं। इस प्रकार शिल्पियों में श्रेष्ठ विश्वकर्मा द्वारा बनाये हुए द्वारका नगर में प्रवेश करते समय भगवान  श्रीकृष्ण ने बांर बार सब ओर दृष्टिपात किया। देवताओं के साथ श्रीमान् इन्द्र ने वहाँ द्वारका को सब ओर दृष्टि दौड़ाते हुए देखा। इस प्रकार उपेन्द्र (श्रीकृष्ण), बलराम तथा महायशस्वी इन्द्र इन तीनों श्रेष्ठ महापुरुषों ने द्वारकापुरी की शोभा देखी। तदनन्तर गरुड के ऊपर बैठे हुए भगवान श्रीकृष्ण ने प्रसन्नतापर्वूक श्वेत वर्ण वाले अपने उस पांचजन्य शंख को बजाया, जो शत्रुओं के रोंगटे खड़े कर देने वाला है। उस घोर शंकध्वनि से समुद्र विक्षुब्ध हो उठा तथा सारा आकशमण्डल गूँजने लगा। उस समय वहाँ यह अद्भुत बात हुई। पांचजन्य का गम्भीर घोस सुनकर और गरुड का दर्शन कर कुकुर और अन्धकवंशी यादव शोक रहित हो गये। भगवान श्रीकृष्ण के हाथों में शंख, चक्र और गदा आदि आयुध सुशोभित थे। वे गरुड के ऊपर बैठे थे। उनका तेज सूर्योदय के समान नूतन चेतना और उत्साह पैदा करने वाला था। उन्हें देखकर सबको बड़ा हर्ष हुआ। तदनन्तर तुरही और भेरियाँ बज उठीं। समस्त पुरवासी भी सिंहनाद कर उठे। उस समय दशार्ह, कुकुर और अन्धकवंश के सब लोग भगवान मधूसूदन का दर्शन करके बड़े प्रसन्न हुए और सभी उनकी अगवानी के लिये आ गये। राज उग्रसेन भगवान वासुदेव को आगे करके वेणुनाद और शंखध्वनि के साथ उनके महल तक उन्हें पहुँचाने के लिये गये। देवकी, रोहिणी तथा उग्रसेन की स्त्रियाँ अपने-अपने महलों में भगवान श्रीकृष्ण का अभिनन्दन करने के लिये यथा स्थान खड़ी थीं। पास आने पर उन सबने उनका यथावत सत्कार किया। वे आशीर्वाद देती हुई इस प्रकार बोलीं- ‘समस्त ब्राह्मण द्वेषी असुर मारे गये, अन्धक और वृष्णिवंश के वीर सर्वत्र विजयी हो रहे हैं।’ स्त्रियों ने भगवान मधुसूदन से ऐसा कहरक उनकी ओर देखा। तदनन्तर श्रीकृष्ण गरुड के द्वारा ही अपने महल में गये। वहाँ उन परमेश्वर ने एक उपयुक्त स्थान में मणिपर्वत को स्थापित कर दिया। इसके बाद कमलनयन मधुसूदन ने सभा भवन में धन और रत्नों को रखकर मन ही मन पिता के दर्शन की अभिलाषा की। फिर विशाल एवं कुछ लाल नेत्रों वाले उन महायशस्वी महाबाहु ने पहले मन ही मन गुरु सान्दीपनि के चरणों का स्पर्श किया।


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१२:२६, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

अष्टात्रिंश (38) अध्‍याय: सभा पर्व (अर्घाभिहरण पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: भाग 33 का हिन्दी अनुवाद

उनके गृहोंद्यान में स्वच्छ जल से भरे हुए कुण्डवाली कितनी ही कृत्रिम नदियाँ प्रवाहित होती रहती हैं, जो प्रफुल्ल उत्पलयुक्त जल से परिपूर्ण है तथा जिनहें दोनों ओर से अनेक प्रकार के वृक्षों ने घेर रखा है। उस भवन के उद्यान की सीमा में मणिमय कंकड् और बालुकाओं से सुशोभित नदियाँ निकाली गयी हैं, जहाँ मतवाले मयूरों के झंड विचरते हैं और मदोन्मत्त कोकिलाएँ कुहू कुहू किया करती हैं। उन गृहोंद्यान में जगत के सभी श्रेष्ठ पर्वत अंशत: संगृहीत हुए हैं। वहाँ हाथियों के यूथ तथा गाया भैसों के झुंंड रहते है। वहीं जंगली सूअर, मृग और पक्षियों के रहने योज्य निवास स्थान भी बनाये गये हैं। विश्वकर्मा द्वारा निर्मित पर्वत माला ही उस विशाल भवन की चहारदीवारी है। उसकी ऊँचाई सौ हाथ की है और वह चन्द्रमा के समान अपनी श्वेत छटा छिटकाती रहती है। पूर्वोक्त बड़े-बड़े पर्वत, सरिताएँ, सरोवर और प्रासाद के समीपवर्ती वन उपवन इस चहारदीवारी से घिरे हुए हैं। इस प्रकार शिल्पियों में श्रेष्ठ विश्वकर्मा द्वारा बनाये हुए द्वारका नगर में प्रवेश करते समय भगवान श्रीकृष्ण ने बांर बार सब ओर दृष्टिपात किया। देवताओं के साथ श्रीमान् इन्द्र ने वहाँ द्वारका को सब ओर दृष्टि दौड़ाते हुए देखा। इस प्रकार उपेन्द्र (श्रीकृष्ण), बलराम तथा महायशस्वी इन्द्र इन तीनों श्रेष्ठ महापुरुषों ने द्वारकापुरी की शोभा देखी। तदनन्तर गरुड के ऊपर बैठे हुए भगवान श्रीकृष्ण ने प्रसन्नतापर्वूक श्वेत वर्ण वाले अपने उस पांचजन्य शंख को बजाया, जो शत्रुओं के रोंगटे खड़े कर देने वाला है। उस घोर शंकध्वनि से समुद्र विक्षुब्ध हो उठा तथा सारा आकशमण्डल गूँजने लगा। उस समय वहाँ यह अद्भुत बात हुई। पांचजन्य का गम्भीर घोस सुनकर और गरुड का दर्शन कर कुकुर और अन्धकवंशी यादव शोक रहित हो गये। भगवान श्रीकृष्ण के हाथों में शंख, चक्र और गदा आदि आयुध सुशोभित थे। वे गरुड के ऊपर बैठे थे। उनका तेज सूर्योदय के समान नूतन चेतना और उत्साह पैदा करने वाला था। उन्हें देखकर सबको बड़ा हर्ष हुआ। तदनन्तर तुरही और भेरियाँ बज उठीं। समस्त पुरवासी भी सिंहनाद कर उठे। उस समय दशार्ह, कुकुर और अन्धकवंश के सब लोग भगवान मधूसूदन का दर्शन करके बड़े प्रसन्न हुए और सभी उनकी अगवानी के लिये आ गये। राज उग्रसेन भगवान वासुदेव को आगे करके वेणुनाद और शंखध्वनि के साथ उनके महल तक उन्हें पहुँचाने के लिये गये। देवकी, रोहिणी तथा उग्रसेन की स्त्रियाँ अपने-अपने महलों में भगवान श्रीकृष्ण का अभिनन्दन करने के लिये यथा स्थान खड़ी थीं। पास आने पर उन सबने उनका यथावत सत्कार किया। वे आशीर्वाद देती हुई इस प्रकार बोलीं- ‘समस्त ब्राह्मण द्वेषी असुर मारे गये, अन्धक और वृष्णिवंश के वीर सर्वत्र विजयी हो रहे हैं।’ स्त्रियों ने भगवान मधुसूदन से ऐसा कहरक उनकी ओर देखा। तदनन्तर श्रीकृष्ण गरुड के द्वारा ही अपने महल में गये। वहाँ उन परमेश्वर ने एक उपयुक्त स्थान में मणिपर्वत को स्थापित कर दिया। इसके बाद कमलनयन मधुसूदन ने सभा भवन में धन और रत्नों को रखकर मन ही मन पिता के दर्शन की अभिलाषा की। फिर विशाल एवं कुछ लाल नेत्रों वाले उन महायशस्वी महाबाहु ने पहले मन ही मन गुरु सान्दीपनि के चरणों का स्पर्श किया।


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