"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 143 श्लोक 63-72": अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
('==त्रिचत्वारिंशदधिकशततम (143) अध्याय: द्रोणपर्व (जयद्र...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
No edit summary
पंक्ति ९: पंक्ति ९:




{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 143 श्लोक 47-62|अगला=महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 144 श्लोक1-18}}
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 143 श्लोक 47-62|अगला=महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 144 श्लोक 1-18}}


==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

११:५५, ५ जुलाई २०१५ का अवतरण

त्रिचत्वारिंशदधिकशततम (143) अध्याय: द्रोणपर्व (जयद्रथवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: त्रिचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 63-72 का हिन्दी अनुवाद

मेरी बांहें मौजूद हैं और मैं अपने ऊपर किये गये आघात का बदला लेने की निरन्तर चेष्टा करता आया हूं तो भी तुम लोग आंख रहते हुए भी यदि मुझे मरा हुआ मान लेते हो, तो यह तुम्हारी बुद्धि की मन्दता का परिचायक है। कुरुश्रेष्ठ वीरो ! मैंने तो भूरिश्रवा का वध करके बदला चुकाया है, जो सर्वथा उचित है। कुन्तीकुमार अर्जुन ने अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा करते हुए जो मुझे संकट में देखकर भूरिश्रवा की तलवार सहित बांह काट डाली, इसीसे मैं भूरिश्रवा को मारने के यश से वन्चित रह गया। जो होनहार होती है, उसके अनुकूल ही दैव चेष्टा कराता है। इसीके अनुसार इस संग्राम में भूरिश्रवा मारे गये हैं। इसमें अधर्मपूर्ण चेष्टा क्या है? महर्षि वाल्मीकि ने पूर्वकाल में ही इस भूतल पर एक श्लोक का गान किया है। जिसका भावार्थ इस प्रकार है-वानर ! तुम जो यह कहते हो कि स्त्रियों का वध नहीं करना चाहिये, उसके उत्तर में मेरा यह कहना है कि उद्योगी मनुष्य के लिये सदा सब समय वह कार्य करने ही योग्य माना गया है, जो शत्रुओं को पीड़ा देने वाला हो।

संजय कहते हैं-महाराज ! सात्यकि के ऐसा कहने पर समस्त श्रेष्ठ कौरवों ने उसके उत्तर में कुछ नहीं कहा। वे मन ही मन उनकी प्रंशसा करने लगे। बड़े-बड़े यज्ञों में मन्त्रयुक्त अभिषेक से जो पवित्र हो चुके थे, यज्ञों में कई हजार स्वर्णमुद्राओं की दक्षिणा देते थे, जिनका यश सर्वत्र फैला हुआ था और जो वनवासी मुनि के समान वहां बैठे हुए थे, उन भूरिश्रवा के वध का किसी ने भी अभिनन्दन नहीं किया। वर देने वाले भूरिश्रवा का नीले केशों से अलंकृत तथा कबूतर के समान लाल नेत्रों वाला वह कटा हुआ सिर ऐसा जान पड़ता था, मानो अश्वमेध के मध्य अश्व का कटा हुआ मस्तक अग्निकुण्ड के भीतर रखागया हो। वरदायक तथा वर पाने के योग्य भूरिश्रवा ने उस महायुद्ध में शस्त्र के तेज से पवित्र हो अपने उत्तम शरीर का परित्याग करके उत्कृष्ट धर्म के द्वारा पृथ्वी और आकाश को लांघकर ऊर्ध्‍वलोकमें गमन किया।

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व केअन्तर्गत जयद्रथवधपर्व में भूरिश्रवा का वध विषयक एक सौ तैंतालीसवां अध्याय पूरा हुआ।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख