"महाभारत वन पर्व अध्याय 291 श्लोक 1-17" के अवतरणों में अंतर

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श्रीराम का सीता के प्रति संदेह, देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन, श्रीराम का दल-बल सहित लंका से प्रस्थान एवं किष्किन्धा होते हुए अयोध्या में पहुँचकर भरत से मिलना तथा राज्य पर अभिषिक्त होना
 
श्रीराम का सीता के प्रति संदेह, देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन, श्रीराम का दल-बल सहित लंका से प्रस्थान एवं किष्किन्धा होते हुए अयोध्या में पहुँचकर भरत से मिलना तथा राज्य पर अभिषिक्त होना
  
मार्कण्डेयजी कहते हैं- युधिष्ठिर ! इस प्रकार नीच स्वभाव वाले देषद्रोही राक्षसराज रावण का वघ करके भगवान् श्रीराम अपने मित्रों तथा लक्ष्मण के साथ बड़े प्रसन्न हुए । दशानन के मारे जाने पर देवता तथा महर्षिगण जययुक्त आशीर्वाद देते हुए उन महाबाहु की पूजा एवं प्रशंसा करने लगे । स्वर्गवासी सम्पूर्ण देवताओं तथा गन्धर्वों ने फूलों की वर्षा करते हुए उत्तम वाणी द्वारा कमलनयन भगवान् श्रीराम का स्तवन किया । श्रीराम की भलीभाँति पूजा करके वे सब जैसे आये थे, उसी प्रकार लौट गये। युधिष्ठिर ! उस समय आकाश महान् उत्सव समारोह से भरा सा जान पड़ता था । तत्पश्चात् शत्रुओं की राजधानी पर विजय पाने वाले महायशस्वी भगवान् श्रीराम ने दशानन रावण का वध करने के अनन्तर लंका का राज्य विभीषणको दे दिया । इसके बाद उत्तम बुद्धि से युक्त बूढ़े मन्त्री अविन्ध्य विभीषण सहित भगवती सीता को आगे करके लंकापुरी से बाहर निकले। वे ककुत्स्यकुलभूषण महात्मा श्रीरामचन्द्रजी से दीनता पूर्वक बोले- ‘महात्मन् ! सदाचार से सुशोभित जनककिशोरी महारानी सीता को ग्रहण कीजिये’।यह सूनकर इक्ष्वाकुनन्दन भगवान् श्रीराम ने उस उत्तम रथ से उतरकर सीता को देखा। उनके मुख पर आँसुओं की धारा बह रही थी। शिविका में बैठी हुई सर्वांगसुन्दरी सीता शोक से दुबली हो गयीं थीं। उनके समसत अंगों में मैल जम गयी थी, सिर के बाल आपस में चिपककर जटा के रूप में परिणत हो गये थे और उनका वस्त्र काला पड़ गया था । श्रीरामचन्द्रजी के मन में यह संदेह हुआ कि सम्भव है, सीता परपुरुष के स्पर्श से अपवित्र हो गयी हों; अतः उन्होंने विदेहनन्दिनी सीता से स्पष्ट वचनों द्वारा कहा- ‘विदेहकुमारी ! मैंने तुम्हें रावण की कैद से छुड़ा दिया। अब तुम जाओ। मेरा जो कर्तव्य था, उसे मैंने पूरा कर दिया । ‘भद्रे ! मुझ जैसे पति को पाकर तुम्हें वृद्धावस्था तक किसी राक्षस के घर में न रहना पड़े, यही सोचकर मैंने उस निशाचर का वध किया है।‘धर्म के सिद्धान्त को जानने वाला मेरे जैसा कोई भी पुरुषदूसरे के हाथ में पड़ी हुई नारी को मुहूर्त भर के लिये भी कैसे ग्रहण कर सकता है ? ‘मिथिलेशनन्दिनी ! तुम्हारा आचार-विचार शुद्ध रह गया हो अथवा अशुद्ध, अब मैं तुम्हें अपने उपयोग में नहीं ला सकता- ठीक उसी तरह, जैसे कुत्ते के चाटे हुए हविष्य को कोई ग्रहण नहीं करता’। सहसा यह कठोर वचन सुनकर देवी सीता व्यथित हो कटे हुए केले के वृक्ष की भाँति सहसा पृथ्वी पर गिर पड़ीं । जैासे श्वास लेने से दर्पण में पड़ा हुआ मुख का प्रतिबिम्ब मलिन हो जाता है, उसी प्रकार सीता के मुख पर उस समय जो हर्षजनित कान्ति छा रही थी, वह एक ही क्षण में फिर विलीन हो गयी । श्रीरामचन्द्रजी का यह कथन सुनकर समस्त वानर तथा लच्मण सबके सब मरे हुए के समान निश्चेष्ट हो गये । इसी समय विशुद्ध अन्तःकरण वाले कमलयोनि जगत्स्रष्टा चतुर्मुख ब्रह्माजी ने विमान द्वारा वहाँ आकर श्रीरामचन्द्रजी को दर्शन दिया ।
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मार्कण्डेयजी कहते हैं- युधिष्ठिर ! इस प्रकार नीच स्वभाव वाले देषद्रोही राक्षसराज रावण का वघ करके भगवान  श्रीराम अपने मित्रों तथा लक्ष्मण के साथ बड़े प्रसन्न हुए । दशानन के मारे जाने पर देवता तथा महर्षिगण जययुक्त आशीर्वाद देते हुए उन महाबाहु की पूजा एवं प्रशंसा करने लगे । स्वर्गवासी सम्पूर्ण देवताओं तथा गन्धर्वों ने फूलों की वर्षा करते हुए उत्तम वाणी द्वारा कमलनयन भगवान  श्रीराम का स्तवन किया । श्रीराम की भलीभाँति पूजा करके वे सब जैसे आये थे, उसी प्रकार लौट गये। युधिष्ठिर ! उस समय आकाश महान् उत्सव समारोह से भरा सा जान पड़ता था । तत्पश्चात् शत्रुओं की राजधानी पर विजय पाने वाले महायशस्वी भगवान  श्रीराम ने दशानन रावण का वध करने के अनन्तर लंका का राज्य विभीषणको दे दिया । इसके बाद उत्तम बुद्धि से युक्त बूढ़े मन्त्री अविन्ध्य विभीषण सहित भगवती सीता को आगे करके लंकापुरी से बाहर निकले। वे ककुत्स्यकुलभूषण महात्मा श्रीरामचन्द्रजी से दीनता पूर्वक बोले- ‘महात्मन् ! सदाचार से सुशोभित जनककिशोरी महारानी सीता को ग्रहण कीजिये’।यह सूनकर इक्ष्वाकुनन्दन भगवान  श्रीराम ने उस उत्तम रथ से उतरकर सीता को देखा। उनके मुख पर आँसुओं की धारा बह रही थी। शिविका में बैठी हुई सर्वांगसुन्दरी सीता शोक से दुबली हो गयीं थीं। उनके समसत अंगों में मैल जम गयी थी, सिर के बाल आपस में चिपककर जटा के रूप में परिणत हो गये थे और उनका वस्त्र काला पड़ गया था । श्रीरामचन्द्रजी के मन में यह संदेह हुआ कि सम्भव है, सीता परपुरुष के स्पर्श से अपवित्र हो गयी हों; अतः उन्होंने विदेहनन्दिनी सीता से स्पष्ट वचनों द्वारा कहा- ‘विदेहकुमारी ! मैंने तुम्हें रावण की कैद से छुड़ा दिया। अब तुम जाओ। मेरा जो कर्तव्य था, उसे मैंने पूरा कर दिया । ‘भद्रे ! मुझ जैसे पति को पाकर तुम्हें वृद्धावस्था तक किसी राक्षस के घर में न रहना पड़े, यही सोचकर मैंने उस निशाचर का वध किया है।‘धर्म के सिद्धान्त को जानने वाला मेरे जैसा कोई भी पुरुषदूसरे के हाथ में पड़ी हुई नारी को मुहूर्त भर के लिये भी कैसे ग्रहण कर सकता है ? ‘मिथिलेशनन्दिनी ! तुम्हारा आचार-विचार शुद्ध रह गया हो अथवा अशुद्ध, अब मैं तुम्हें अपने उपयोग में नहीं ला सकता- ठीक उसी तरह, जैसे कुत्ते के चाटे हुए हविष्य को कोई ग्रहण नहीं करता’। सहसा यह कठोर वचन सुनकर देवी सीता व्यथित हो कटे हुए केले के वृक्ष की भाँति सहसा पृथ्वी पर गिर पड़ीं । जैासे श्वास लेने से दर्पण में पड़ा हुआ मुख का प्रतिबिम्ब मलिन हो जाता है, उसी प्रकार सीता के मुख पर उस समय जो हर्षजनित कान्ति छा रही थी, वह एक ही क्षण में फिर विलीन हो गयी । श्रीरामचन्द्रजी का यह कथन सुनकर समस्त वानर तथा लच्मण सबके सब मरे हुए के समान निश्चेष्ट हो गये । इसी समय विशुद्ध अन्तःकरण वाले कमलयोनि जगत्स्रष्टा चतुर्मुख ब्रह्माजी ने विमान द्वारा वहाँ आकर श्रीरामचन्द्रजी को दर्शन दिया ।
  
  

१२:१७, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

एकनवत्यधिकद्विशततम (291) अध्याय: वन पर्व (रामोख्यानपर्व)

महाभारत: वन पर्व: एकनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः 1-17 श्लोक का हिन्दी अनुवाद


श्रीराम का सीता के प्रति संदेह, देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन, श्रीराम का दल-बल सहित लंका से प्रस्थान एवं किष्किन्धा होते हुए अयोध्या में पहुँचकर भरत से मिलना तथा राज्य पर अभिषिक्त होना

मार्कण्डेयजी कहते हैं- युधिष्ठिर ! इस प्रकार नीच स्वभाव वाले देषद्रोही राक्षसराज रावण का वघ करके भगवान श्रीराम अपने मित्रों तथा लक्ष्मण के साथ बड़े प्रसन्न हुए । दशानन के मारे जाने पर देवता तथा महर्षिगण जययुक्त आशीर्वाद देते हुए उन महाबाहु की पूजा एवं प्रशंसा करने लगे । स्वर्गवासी सम्पूर्ण देवताओं तथा गन्धर्वों ने फूलों की वर्षा करते हुए उत्तम वाणी द्वारा कमलनयन भगवान श्रीराम का स्तवन किया । श्रीराम की भलीभाँति पूजा करके वे सब जैसे आये थे, उसी प्रकार लौट गये। युधिष्ठिर ! उस समय आकाश महान् उत्सव समारोह से भरा सा जान पड़ता था । तत्पश्चात् शत्रुओं की राजधानी पर विजय पाने वाले महायशस्वी भगवान श्रीराम ने दशानन रावण का वध करने के अनन्तर लंका का राज्य विभीषणको दे दिया । इसके बाद उत्तम बुद्धि से युक्त बूढ़े मन्त्री अविन्ध्य विभीषण सहित भगवती सीता को आगे करके लंकापुरी से बाहर निकले। वे ककुत्स्यकुलभूषण महात्मा श्रीरामचन्द्रजी से दीनता पूर्वक बोले- ‘महात्मन् ! सदाचार से सुशोभित जनककिशोरी महारानी सीता को ग्रहण कीजिये’।यह सूनकर इक्ष्वाकुनन्दन भगवान श्रीराम ने उस उत्तम रथ से उतरकर सीता को देखा। उनके मुख पर आँसुओं की धारा बह रही थी। शिविका में बैठी हुई सर्वांगसुन्दरी सीता शोक से दुबली हो गयीं थीं। उनके समसत अंगों में मैल जम गयी थी, सिर के बाल आपस में चिपककर जटा के रूप में परिणत हो गये थे और उनका वस्त्र काला पड़ गया था । श्रीरामचन्द्रजी के मन में यह संदेह हुआ कि सम्भव है, सीता परपुरुष के स्पर्श से अपवित्र हो गयी हों; अतः उन्होंने विदेहनन्दिनी सीता से स्पष्ट वचनों द्वारा कहा- ‘विदेहकुमारी ! मैंने तुम्हें रावण की कैद से छुड़ा दिया। अब तुम जाओ। मेरा जो कर्तव्य था, उसे मैंने पूरा कर दिया । ‘भद्रे ! मुझ जैसे पति को पाकर तुम्हें वृद्धावस्था तक किसी राक्षस के घर में न रहना पड़े, यही सोचकर मैंने उस निशाचर का वध किया है।‘धर्म के सिद्धान्त को जानने वाला मेरे जैसा कोई भी पुरुषदूसरे के हाथ में पड़ी हुई नारी को मुहूर्त भर के लिये भी कैसे ग्रहण कर सकता है ? ‘मिथिलेशनन्दिनी ! तुम्हारा आचार-विचार शुद्ध रह गया हो अथवा अशुद्ध, अब मैं तुम्हें अपने उपयोग में नहीं ला सकता- ठीक उसी तरह, जैसे कुत्ते के चाटे हुए हविष्य को कोई ग्रहण नहीं करता’। सहसा यह कठोर वचन सुनकर देवी सीता व्यथित हो कटे हुए केले के वृक्ष की भाँति सहसा पृथ्वी पर गिर पड़ीं । जैासे श्वास लेने से दर्पण में पड़ा हुआ मुख का प्रतिबिम्ब मलिन हो जाता है, उसी प्रकार सीता के मुख पर उस समय जो हर्षजनित कान्ति छा रही थी, वह एक ही क्षण में फिर विलीन हो गयी । श्रीरामचन्द्रजी का यह कथन सुनकर समस्त वानर तथा लच्मण सबके सब मरे हुए के समान निश्चेष्ट हो गये । इसी समय विशुद्ध अन्तःकरण वाले कमलयोनि जगत्स्रष्टा चतुर्मुख ब्रह्माजी ने विमान द्वारा वहाँ आकर श्रीरामचन्द्रजी को दर्शन दिया ।



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