"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 156 श्लोक 63-80": अवतरणों में अंतर

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==षट्पञ्चाशदधिकशततम (156) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्‍कचवध पर्व )==
==षट्पञ्चाशदधिकशततम (156) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्‍कचवध पर्व )==
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: द्रोणपर्व: षट्पञ्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 44-62 का हिन्दी अनुवाद</div>  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: द्रोणपर्व: षट्पञ्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 63-80 का हिन्दी अनुवाद</div>  


वह देखने में पर्वत-शिखर के समान जान पडता था। उसका रूप भयानक होने के कारण वह सब को भयंकर प्रतीत होता था। उसका मुख यों ही बडा भीषण था; किंतु दाढों के कारण और भी विकराल हो उठा था। उसके कान कील या खूंटे के समान जान पडते थें। ठोढी बहुत बडी थी। बाल उपर की ओर उठे हुए थे। आंखें डरावनी थी। मुख आग के समान प्रजवलित था, पेट भीतर की ओर धंसा हुआ था। उसके गले का छेद बहुत बडे गडढे के समान जान पडता था। सिर के बाल किरीट से ढके हुए थे। वह मुंह बाये हुए यमराज के समान समस्त प्राणियों के मन में त्रास उत्पन्न करनेवाला था। शत्रुओं को क्षुब्ध कर देनेवाले प्रज्वलित अग्निके समान राक्षसराज घटोत्कच को विशाल धनुष उठाये आते देख आपके पुत्र की सेना भय से पीडित एवं क्षुब्ध हो उठी, मानो वायुसे विक्षुब्ध हुई गंगा में भयानक भंवरें और उची-उची लहरें उठ रही थी। घटोत्कच के द्वारा किये हुए सिंहनाद से भयभीत हो हाथियों के पेशाब झडने लगे और मनुष्य भी अत्यन्त व्यथित हो उठे। तदनन्तर उस रणभूमि <ref>भूमि नापने एक नाप जो चार सौ हाथ का होता है।</ref>में चारों और संध्याकाल से ही अधिक बलवान् हुए राक्षसों द्वारा की हुई पत्थरों की बडी भारी वर्षा होने लगी। लोहे के चक्र, भुशुण्डी, प्रास, तोमर, शूल, शतघ्नी और पटिष आदि अस्त्र अविराम गतिसे गिरने लगे। उस अत्यन्त भयंकर और उस संग्राम को देखकर समस्त नरेश, आपके पुत्र और कर्ण- ये सभी पीडित हो सम्पूर्ण दिशाओं में भाग गये। <br />
वह देखने में पर्वत-शिखर के समान जान पडता था। उसका रूप भयानक होने के कारण वह सब को भयंकर प्रतीत होता था। उसका मुख यों ही बडा भीषण था; किंतु दाढों के कारण और भी विकराल हो उठा था। उसके कान कील या खूंटे के समान जान पडते थें। ठोढी बहुत बडी थी। बाल उपर की ओर उठे हुए थे। आंखें डरावनी थी। मुख आग के समान प्रजवलित था, पेट भीतर की ओर धंसा हुआ था। उसके गले का छेद बहुत बडे गडढे के समान जान पडता था। सिर के बाल किरीट से ढके हुए थे। वह मुंह बाये हुए यमराज के समान समस्त प्राणियों के मन में त्रास उत्पन्न करनेवाला था। शत्रुओं को क्षुब्ध कर देनेवाले प्रज्वलित अग्निके समान राक्षसराज घटोत्कच को विशाल धनुष उठाये आते देख आपके पुत्र की सेना भय से पीडित एवं क्षुब्ध हो उठी, मानो वायुसे विक्षुब्ध हुई गंगा में भयानक भंवरें और उची-उची लहरें उठ रही थी। घटोत्कच के द्वारा किये हुए सिंहनाद से भयभीत हो हाथियों के पेशाब झडने लगे और मनुष्य भी अत्यन्त व्यथित हो उठे। तदनन्तर उस रणभूमि <ref>भूमि नापने एक नाप जो चार सौ हाथ का होता है।</ref>में चारों और संध्याकाल से ही अधिक बलवान् हुए राक्षसों द्वारा की हुई पत्थरों की बडी भारी वर्षा होने लगी। लोहे के चक्र, भुशुण्डी, प्रास, तोमर, शूल, शतघ्नी और पटिष आदि अस्त्र अविराम गतिसे गिरने लगे। उस अत्यन्त भयंकर और उस संग्राम को देखकर समस्त नरेश, आपके पुत्र और कर्ण- ये सभी पीडित हो सम्पूर्ण दिशाओं में भाग गये। <br />
उस समय वहां अपने अस्त्र-बलपर अभिमान करनेवाला एकमात्र द्रोणकुमार स्वाभिमानी अश्वत्थामा तनिक भी व्यथित नहीं हुआ । उसने घटोत्कच की रची हुई माया अपने बाणों द्वारा नष्ट कर दी। माया नष्ट हो जानेपर अमर्ष में भरे हुए घटोत्कच ने बडे भयंकर बाण छोडे। वे सभी बाण अश्वृत्थामा के शरीरमें घुस गये। जैसे क्रोधातुर सर्प बडे वेग से बांबी में घुसते हैं, उसी प्रकार शिलापर तेज किये हुए वे सुवर्णमय पंखवाले शीघ्रगामी बाण कृपीकुमार को विदीर्ण करके खूनसे लथपथ हो धरती मे घुस गये। इससे अश्वत्थामा का क्रोध बहुत बढ गया। फिर तो शीघ्रतापूर्वक हाथ चलानेवाले उस प्रतापी वीर ने क्रोधी घटोत्कच को दस बाणों से घायल कर दिया। द्रोणपुत्र के द्वारा मर्मस्थानों में गहरी चोट लगने के कारण घटोत्कच अत्यन्त व्यथित हो उठा और उसने एक ऐसा चक्र हाथ में लिया; जिसमें एक लाख अरे थे। उसके प्रान्तभाग में छुरे लगे हुए थे। मणियों तथा हीरों से विभूषित वह चक्र प्रातःकाल के सूर्य के समान जान पडता था। भीमसेनकुमार ने अश्वत्थामा का वध करने की इच्छा से वह चक्र उसके उपर चला दिया, परंतु अश्वत्थामा ने अपने बाणों द्वारा बडे वेग से आते हुए देख उस चक्र को दूर फेंक दिया। वह भाग्यहीन के संकल्प (मनोरथ) की भांति व्यर्थ होकर पृथ्वी पर गिर पडा। तदनन्तर अपने चक्र को धरती पर गिराया हुआ देख घटोत्कच ने अपने बाणों की वर्षा से अश्वत्थामा को उसी प्रकार ढक दिया, जैसे राहू सूर्य को आच्छादित कर देता है। घटोत्कच के तेजस्वी पुत्र अंजनपर्वा ने, जो कटे हुए कोयले के ढेर के समान काला था; अपनी ओर आते हुए अश्वत्थामा को उसी प्रकार रोक दिया, जैसे गिरिराज हिमालय आंधी को रोक देता हैं।  
उस समय वहां अपने अस्त्र-बलपर अभिमान करनेवाला एकमात्र द्रोणकुमार स्वाभिमानी अश्वत्थामा तनिक भी व्यथित नहीं हुआ । उसने घटोत्कच की रची हुई माया अपने बाणों द्वारा नष्ट कर दी। माया नष्ट हो जानेपर अमर्ष में भरे हुए घटोत्कच ने बडे भयंकर बाण छोडे। वे सभी बाण अश्वृत्थामा के शरीरमें घुस गये। जैसे क्रोधातुर सर्प बडे वेग से बांबी में घुसते हैं, उसी प्रकार शिलापर तेज किये हुए वे सुवर्णमय पंखवाले शीघ्रगामी बाण कृपीकुमार को विदीर्ण करके खूनसे लथपथ हो धरती मे घुस गये। इससे अश्वत्थामा का क्रोध बहुत बढ गया। फिर तो शीघ्रतापूर्वक हाथ चलानेवाले उस प्रतापी वीर ने क्रोधी घटोत्कच को दस बाणों से घायल कर दिया। द्रोणपुत्र के द्वारा मर्मस्थानों में गहरी चोट लगने के कारण घटोत्कच अत्यन्त व्यथित हो उठा और उसने एक ऐसा चक्र हाथ में लिया; जिसमें एक लाख अरे थे। उसके प्रान्तभाग में छुरे लगे हुए थे। मणियों तथा हीरों से विभूषित वह चक्र प्रातःकाल के सूर्य के समान जान पडता था। भीमसेनकुमार ने अश्वत्थामा का वध करने की इच्छा से वह चक्र उसके उपर चला दिया, परंतु अश्वत्थामा ने अपने बाणों द्वारा बडे वेग से आते हुए देख उस चक्र को दूर फेंक दिया। वह भाग्यहीन के संकल्प (मनोरथ) की भांति व्यर्थ होकर पृथ्वी पर गिर पडा। तदनन्तर अपने चक्र को धरती पर गिराया हुआ देख घटोत्कच ने अपने बाणों की वर्षा से अश्वत्थामा को उसी प्रकार ढक दिया, जैसे राहू सूर्य को आच्छादित कर देता है। घटोत्कच के तेजस्वी पुत्र अंजनपर्वा ने, जो कटे हुए कोयले के ढेर के समान काला था; अपनी ओर आते हुए अश्वत्थामा को उसी प्रकार रोक दिया, जैसे गिरिराज हिमालय आंधी को रोक देता हैं।  


{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 156 श्लोक 21-43|अगला=महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 156 श्लोक 63-80}}
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 156 श्लोक 44-62|अगला=महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 156 श्लोक 81-98}}


==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

०६:२३, १९ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

षट्पञ्चाशदधिकशततम (156) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्‍कचवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: षट्पञ्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 63-80 का हिन्दी अनुवाद

वह देखने में पर्वत-शिखर के समान जान पडता था। उसका रूप भयानक होने के कारण वह सब को भयंकर प्रतीत होता था। उसका मुख यों ही बडा भीषण था; किंतु दाढों के कारण और भी विकराल हो उठा था। उसके कान कील या खूंटे के समान जान पडते थें। ठोढी बहुत बडी थी। बाल उपर की ओर उठे हुए थे। आंखें डरावनी थी। मुख आग के समान प्रजवलित था, पेट भीतर की ओर धंसा हुआ था। उसके गले का छेद बहुत बडे गडढे के समान जान पडता था। सिर के बाल किरीट से ढके हुए थे। वह मुंह बाये हुए यमराज के समान समस्त प्राणियों के मन में त्रास उत्पन्न करनेवाला था। शत्रुओं को क्षुब्ध कर देनेवाले प्रज्वलित अग्निके समान राक्षसराज घटोत्कच को विशाल धनुष उठाये आते देख आपके पुत्र की सेना भय से पीडित एवं क्षुब्ध हो उठी, मानो वायुसे विक्षुब्ध हुई गंगा में भयानक भंवरें और उची-उची लहरें उठ रही थी। घटोत्कच के द्वारा किये हुए सिंहनाद से भयभीत हो हाथियों के पेशाब झडने लगे और मनुष्य भी अत्यन्त व्यथित हो उठे। तदनन्तर उस रणभूमि [१]में चारों और संध्याकाल से ही अधिक बलवान् हुए राक्षसों द्वारा की हुई पत्थरों की बडी भारी वर्षा होने लगी। लोहे के चक्र, भुशुण्डी, प्रास, तोमर, शूल, शतघ्नी और पटिष आदि अस्त्र अविराम गतिसे गिरने लगे। उस अत्यन्त भयंकर और उस संग्राम को देखकर समस्त नरेश, आपके पुत्र और कर्ण- ये सभी पीडित हो सम्पूर्ण दिशाओं में भाग गये।
उस समय वहां अपने अस्त्र-बलपर अभिमान करनेवाला एकमात्र द्रोणकुमार स्वाभिमानी अश्वत्थामा तनिक भी व्यथित नहीं हुआ । उसने घटोत्कच की रची हुई माया अपने बाणों द्वारा नष्ट कर दी। माया नष्ट हो जानेपर अमर्ष में भरे हुए घटोत्कच ने बडे भयंकर बाण छोडे। वे सभी बाण अश्वृत्थामा के शरीरमें घुस गये। जैसे क्रोधातुर सर्प बडे वेग से बांबी में घुसते हैं, उसी प्रकार शिलापर तेज किये हुए वे सुवर्णमय पंखवाले शीघ्रगामी बाण कृपीकुमार को विदीर्ण करके खूनसे लथपथ हो धरती मे घुस गये। इससे अश्वत्थामा का क्रोध बहुत बढ गया। फिर तो शीघ्रतापूर्वक हाथ चलानेवाले उस प्रतापी वीर ने क्रोधी घटोत्कच को दस बाणों से घायल कर दिया। द्रोणपुत्र के द्वारा मर्मस्थानों में गहरी चोट लगने के कारण घटोत्कच अत्यन्त व्यथित हो उठा और उसने एक ऐसा चक्र हाथ में लिया; जिसमें एक लाख अरे थे। उसके प्रान्तभाग में छुरे लगे हुए थे। मणियों तथा हीरों से विभूषित वह चक्र प्रातःकाल के सूर्य के समान जान पडता था। भीमसेनकुमार ने अश्वत्थामा का वध करने की इच्छा से वह चक्र उसके उपर चला दिया, परंतु अश्वत्थामा ने अपने बाणों द्वारा बडे वेग से आते हुए देख उस चक्र को दूर फेंक दिया। वह भाग्यहीन के संकल्प (मनोरथ) की भांति व्यर्थ होकर पृथ्वी पर गिर पडा। तदनन्तर अपने चक्र को धरती पर गिराया हुआ देख घटोत्कच ने अपने बाणों की वर्षा से अश्वत्थामा को उसी प्रकार ढक दिया, जैसे राहू सूर्य को आच्छादित कर देता है। घटोत्कच के तेजस्वी पुत्र अंजनपर्वा ने, जो कटे हुए कोयले के ढेर के समान काला था; अपनी ओर आते हुए अश्वत्थामा को उसी प्रकार रोक दिया, जैसे गिरिराज हिमालय आंधी को रोक देता हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भूमि नापने एक नाप जो चार सौ हाथ का होता है।

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