महाभारत वन पर्व अध्याय 131 श्लोक 1-15

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एकत्रिंशदधिकशततम (131) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )

महाभारत: वन पर्व: एकत्रिंशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

राजा उशीनर द्वारा बाज को अपने शरीर का मांस देकर शरण में आये हुए कबूतर के प्राणों की रक्षा करना

तब बाज ने कहा- राजन ! समस्त भूपाल केवल आपको ही धर्मात्मा बताते हैं। फिर आप यह सम्पूर्ण धर्मों से विरुद्ध कर्म कैसे करना चाहते हैं। महाराज ! मैं भुख से कष्‍ट पा रहा हूं और कबूतर मेरा आहार नियत किया गया हैा आप धर्म के लोभ से इसकी रक्षा न करें । वास्तव में इसे आश्रय देकर आपने धर्म का परित्याग ही किया हैं । राज बोले- पक्षि‍राज ! यह कबूतर तुम से डरकर घबराया हुआ हैं और अपने प्राण बचाने की इच्छा से मेरे समीप आया हैा यह अपनी रक्षा चाहता हैा बाज ! इस प्रकार अभय चाहने वाले इस कबूतर को यदि‍ मैं तुमको नहीं सौंप रहा हूं, यह तो मेरा परम धर्म है। इसे तुम कैसे नहीं दे रहे हो ।। बाज ! देखो जो यह बेचारा कबूतर किस प्रकार भय से व्याकुल हो थर थर कांप रहा है। इसने अपने प्राणों की रक्षा के लिये ही मेरी शरण ली है। ऐसी दशा में इसे त्याग देना बड़ी ही निन्दा की बात है। जो मनुष्‍य ब्राह्मणों ही हत्या करता है, जो जगन्माता गौ का वध करता है तथा जो शरण मे आये हुए को त्याग देता है, इन तीनों को समान पाप लगता है । बाज ने कहा- महाराज ! सब प्राणी आहार से ही उत्पन्न होते है, आहार से ही उनकी वृद्धि होती है और आहर से ही जीवित रहते है ।जिसको त्यागना बहुत कठिन है, उस अर्थ के बिना भी मनुष्‍य बहुत दिनों तक जीवित रह सकता है, परतु भोजन छोड़ देने पर कोई भी अधिक समय तक जीवन धारण नहीं कर सकता । प्रजानाथ ! आज आपने मुझे भोजन से वंचित कर दिया है, इसलिये मेरे प्राण इस शरीर को छोड़कर अकुताभय पथ ( मृत्यु को प्राप्त हो जायेंगे ) धर्मात्सन ! इस प्रकार मेरी मृत्यु हो जाने पर मेरे स्त्री पुत्र आदि भी ( असहाय होने के कारण नष्‍ट) हो जायेगें । इस तरह आप एक कबूतर की रक्षा करके बहुत से प्राणियों की रक्षा नहीं कर रहे हैं ।। सत्यपराक्रमी नरेश ! जो धर्म दूसरे धर्म का बाधक हो वह धर्म नहीं, कुधर्म है। जो दूसरे किसी धर्म का विरोध न करके प्रतिष्‍टि‍त होता है, वही वास्तविक धर्म है । परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले धर्मो में गौरव लाघव का विचार करके, जिसमें दूसरों के लिये बाधा न हो, उसी धर्म का आचरण करना चाहिये । राजन ! धर्म और अधर्म का निर्णय करते समय पुण्य और पाप के गौरव लाघव पर दृष्‍टि‍ रखकर विचार किजि‍ए तथा जिसमें अधिक पुण्य हो, उसी का आचरण में लाने योग्य धर्म ठहराइये । राजा ने कहा- पक्षि‍श्रेष्‍ट ! तुम्हारी बातें अत्यन्त कल्याणमय गुणों से युक्त है। तुम साक्षात पक्षि‍राज गरुड़ तो नहीं हो इसमें संदेह नहीं की तुम धर्म के ज्ञाता हो । तुम जो बातें कह रहे हो, वे बड़ी ही विचित्र ओर धर्मसंगत हैं । मुझे लक्षणो से ऐसा जान पडता है कि ऐसी कोई बात नहीं है, जो तुम्हें ज्ञात न हो ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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