महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 164 श्लोक 19-36

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०८:५९, ६ जुलाई २०१५ का अवतरण ('==चतुःषष्टयधिकशततम (164) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्‍कचवध ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

चतुःषष्टयधिकशततम (164) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्‍कचवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: चतुःषष्टयधिकशततम अध्याय: श्लोक 19-36 का हिन्दी अनुवाद

संजय कहते हैं- कुरुनन्दन महाराज। युद्ध की इच्छावाले द्रोणाचार्य का मत जानकर दुर्योधन ने उस रात में अपने वशवर्ती भाइयों से तथा कर्ण, वृषसेन, मद्रराज शल्य, दुर्धर्ष, दीर्घबाहु तथा जो-जो उनके पीछे चलने वाले थे, उन सबसे इस प्रकार कहा-। ‘तुम सब लोग सावधान रहकर पराक्रमपूर्वक पीछे की ओर से द्रोणाचार्य की रक्षा करो। कृतवर्मा उनके दाहिने पहिये की और राजा शल्य बायें पहिये की रक्षा करें’। राजन्! त्रिगतों के जो शूरवीर महारथी मरने से शेष रह गये थे, उन सबको आपके पुत्र ने द्रोणाचार्य के आगे-आगे चलने की आज्ञा देते हुए कहा-। ‘आचार्य पूर्णतः सावधान हैं, पाण्डव भी विजय के लिये विशेष यत्नशील एवं सावधान हैं। तुम लोग रणभूमि में शत्रु सैनिकों का संहार करते हुए आचार्य की पूरी सावधानी के साथ रक्षा करे। ‘क्योंकि द्रोणाचार्य बलवान्, प्रतापी और युद्ध में शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाने वाले हैं। वे संग्राम में देवताओं को भी परास्त कर सकते हैं। फिर कुन्ती के पुत्रों और सोमकों की तो बात ही क्या है? ‘इसलिये तुम सब महारथी एक साथ होकर पूर्णतः प्रयत्नशील रहते हुए पाञ्चाल महारथी धृष्टद्युम्न से द्रोणाचार्य की रक्षा करो। हम पाण्डवों की सेनाओं में धृष्टद्युम्न के सिवा ऐसे किसी वीर नरेश को नहीं देखते, जो रणक्षेत्र में द्रोणाचार्य के साथ युद्ध कर सके। अतः मैं सब प्रकार से द्रोणाचार्य की रक्षा करना ही इस समय आवश्यक कर्तव्य मानता हूँ। वे सुरक्षित रहें तो पाण्डवों, संजयों और सोमकों का भी संहार कर सकते हैं। 'युद्ध के मुहाने पर सारे संजयों के मारे जाने पर अश्वत्थामा रणभूमि में धृष्टद्युम्न को भी मार डालेगा, इसमें संशय नहीं है। योद्धाओं! इसी प्रकार महारथी कर्ण अर्जुन का वध कर डालेगा तथा रणयज्ञ की दीक्षा लेकर युद्ध करने वाला मैं भीमसेन को और तेजोहीन हुए दूसरे पाण्डवों को भी बलपूर्वक जीत लूँगा।। 'इस प्रकार अवश्य ही मेरी यह विजय चिरस्थायिनी होगी, अतः तुम सब लोग मिलकर संग्राम में महारथी द्रोण की ही रक्षा करो'। भरतश्रेष्ठ! ऐसा कहकर आपके पुत्र दुर्योधन ने उस भयंकर अन्धकार में अपनी सेना को युद्ध के लिये आज्ञा दे दी। भरतसत्तम! फिर तो रात्रि के समय दोनों सेनाओं में एक दूसरे को जीतने की इच्छा से घोर युद्ध आरम्भ हो गया। अर्जुन कौरव-सेना पर और कौरव सैनिक अर्जुन पर नाना प्रकार के शस्त्र-समूहों की वर्षा करते हुए एक दूसरे को पीड़ा देने लगे। अश्वत्थामा ने पाञ्चालराज द्रुपद को और द्रोणाचार्य ने संजयों को युद्धस्थल में झुकी हुई गाँठवाले बाणों द्वारा आच्छादित कर दिया। भारत! एक ओर से पाण्डव और पाञ्चाल सैनिकों का और दूसरी ओर से कौरव योद्धाओं का, जो एक दूसरे पर गहरी चोट कर रहे थे, घोर आर्तनाद सुनायी पड़ता था। हमने तथा पूर्ववर्ती लोगों ने भी वैसा रौद्र एवं भयानक युद्ध न तो पहले कभी देखा था और न सुना ही था, जैसा कि वह युद्ध हो रहा था।

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गतघटोत्‍कचवध पर्व में रात्रियुद्ध के प्रसंग में संकुलयुद्धविषयक एक सौ चौसठवां अध्‍याय पूरा हुआ।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख