श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 72 श्लोक 1-12

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दशम स्कन्ध: द्विसप्ततितमोऽध्यायः(72) (पूर्वाध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्विसप्ततितमोऽध्यायः श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद


पाण्डवों के राजसूय यज्ञ का आयोजन और जरासन्ध का उद्धार

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! एक दिन महाराज युधिष्ठिर बहुत-से मुनियों, ब्राम्हणों, क्षत्रियों, वैश्यों, भीमसेन आदि भाइयों, आचार्यों, कुल के बड़े-बूढों, जाति-बन्धुओं, सम्बन्धियों एवं कुटुम्बियों के साथ राजसभा में बैठे हुए थे। उन्होंने सबके सामने ही भगवान् श्रीकृष्ण को सम्बोधित करके यह बात कही ।

धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा—गोविन्द! मैं सर्वश्रेष्ठ राजसूय-यज्ञ के द्वारा आपका और आपके परम पावन विभूतिस्वरुप देवताओं का यजन करना चाहता हूँ। प्रभो! आप कृपा करके मेरा यह संकल्प पूरा कीजिये । कमलनाभ! आपके चरणकमलों की पादुकाएँ समस्त अमंगलों को नष्ट करने वाली हैं। जो लोग निरन्तर उनकी सेवा करते हैं, ध्यान और स्तुति करते हैं, वास्तव में वे ही पवित्रात्मा हैं। वे जन्म-मृत्यु के चक्कर से छुटकारा पा जाते हैं। और यदि वे सांसारिक विषयों की अभिलाषा करें तो उन्हें उनकी भी प्राप्ति हो जाती है। परन्तु जो आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण नहीं करते, उन्हें मुक्ति तो मिलती ही नहीं, सांसारिक भोग भी नहीं मिलते । देवताओं के भी आराध्यदेव! मैं चाहता हूँ कि संसारी लोग आपके चरणकमलों की सेवा का प्रभाव देखें। प्रभो! कुरुवंशी और सृंजयवंशी नरपतियों में जो लोग आपका भजन करते हैं और जो नहीं करते, उनका अंतर आप जनता को दिखला दीजिये । प्रभो! आप सबके आत्मा, समदर्शी और स्वयं आत्मानन्द के साक्षात्कार हैं, स्वयं ब्रम्ह हैं। आपमें ‘यह मैं हूँ और यह दूसरा, यह अपना है और यह पराया’—इस प्रकार का भेदभाव नहीं है। फिर भी जो आपकी सेवा करते हैं, उन्हें उनकी भावना के अनुसार फल मिलता ही है—ठीक वैसे ही, जैसे कल्पवृक्ष की सेवा करने वाले को। उस फल में जो न्यूनाधिकता होती है वह तो न्यूनाधिक सेवा के अनुरूप ही होती है। इससे आपमें विषमता या निर्दयता आदि दोष नहीं आते ।

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा—शत्रु विजयी धर्मराज! आपका निश्चय बहुत ही उत्तम है। राजसूय-यज्ञ करने से समस्त लोकों में आपकी मंगलमयी कीर्ति का विस्तार होगा ।

राजन्य! आपका यह महायज्ञ ऋषियों, पितरों, देवताओं, सगे-सम्बन्धियों, हमें—और कहाँ तक कहें, समस्त प्राणियों को अभीष्ट है । महाराज! पृथ्वी के समस्त नरपतियों को जीतकर, सारी पृथ्वी को अपने वश में करके और याज्ञोचित सम्पूर्ण सामग्री एकत्रित करके फिर इस महायज्ञ का अनुष्ठान कीजिये । महाराज! आपके चारों भाई वायु, इन्द्र आदि लोकपालों के अंश से पैदा हुए हैं। वे सब-के-सब बड़े वीर हैं। आप तो परम मनस्वी और संयमी हैं ही। आप लोगों ने अपने सद्गुणों से मुझे अपने वश में कर लिया है। जिन लोगों ने अपनी इन्द्रियों और मन को वश में नहीं किया है, वे मुझे अपने वश में नहीं कर सकते । संसार में कोई बड़े-से-बड़ा देवता भी तेज, यश, लक्ष्मी, सौन्दर्य और ऐश्वर्य आदि के द्वारा मेरे भक्त का तिरस्कार नहीं कर सकता। फिर कोई राजा उसका तिरस्कार कर दे, इसकी तो सम्भावना ही क्या है ? श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् की बात सुनकर महाराज युधिष्ठिर का ह्रदय आनन्द से भर गया। उनका मुखकमल प्रफुल्लित हो गया। अब उन्होंने अपने भाइयों को दिग्विजय करने का आदेश दिया। भगवान् श्रीकृष्ण ने पाण्डवों में अपनी शक्ति का संचार करके उनको अत्यन्त प्रभावशाली बना दिया था ।




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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