श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 65 श्लोक 13-24
दशम स्कन्ध: पञ्चषष्टितमोऽध्यायः (65) (उत्तरार्धः)
एक गोपी ने कहा—‘बलरामजी! हम गाँव की गँवार ग्वालिनें ठहरीं, उनकी बातों में आ गयीं। परन्तु नगर की स्त्रियाँ तो बड़ी चतुर होती हैं। भला, वे चंचल और कृतघ्न श्रीकृष्ण की बातों में क्यों फँसने लगीं; उन्हें तो वे नहीं छका पाते होंगे!’ दूसरी गोपी ने कहा—‘नहीं सखी, श्रीकृष्ण बातें बनाने में तो एक ही हैं। ऐसी रंग-बिरंगी मीठी-मीठी बातें गढ़ते हैं कि क्या कहना! उनकी सुन्दर मुसकुराहट और प्रेम भरी चितवन से नगर-नारियाँ भी प्रेमावेश से व्याकुल हो जाती होंगी और वे अवश्य उनकी बातों में आकर अपने को निछावर कर देती होंगीं’। तीसरी गोपी ने कहा—‘अरी गोपियों! हम लोगों को उसकी बात से क्या मतलब है ? यदि समय ही काटना है तो कोई दूसरी बात करो। यदि उस निष्ठुर का समय हमारे बिना बीत जाता है तो हमारा भी उसी की तरह, भले ही दुःख से क्यों न हो, कट ही जायगा’। अब गोपियों के भाव-नेत्रों के सामने भगवान् श्रीकृष्ण की हँसी, प्रेमभरी बातें, चारु-चितवन, अनूठी चाल और प्रेमालिंगन आदि मुर्तिमान् होकर नाचने लगे। वे उन बातों की मधुर स्मृति में तन्मय होकर रोने लगीं ।
परीक्षित्! भगवान् बलरामजी नाना प्रकार से अनुनयविनय करने में बड़े निपुण थे। उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण के ह्रदयस्पर्शी और लुभावने सन्देश सुना-सुनकर गोपियों को सान्त्वना दी । और वसन्त के दो महीने—चैत्र और वैशाख वहीं बिताये। वे रात्रि के समय गोपियों में रहकर उनके प्रेम की अभिवृद्धि करते। क्यों न हो, भगवान् राम ही जो ठहरे!
उस समय कुमुदिनी कि सुगन्ध लेकर भीनी-भीनी वायु चलती रहती, पूर्ण चन्द्रमा की चाँदनी छिटककर यमुनाजी के तटवर्ती उपवन को उज्जवल कर देती और भगवान् बलराम गोपियों के साथ वहीं विहार करते । वरुणदेव ने अपनी पुत्री वारुनीदेवी को वहाँ भेज दिया था। वह एक वृक्ष के खोडर से बह निकली। उसने अपनी सुगन्ध से सारे वन को सुगन्धित कर दिया । मधुधारा की वह सुगन्ध वायु ने बलरामजी के पास पहुँचायी, मानो उसने उन्हें उपहार दिया हो! उसकी महक से आकृष्ट होकर बलरामजी गोपियों को लेकर वहाँ पहुँचे गये और उनके साथ उसका पान किया । उस समय गोपियाँ बलरामजी के चारों ओर उनके चरित्र का गान कर रही थीं, और वे मतवाले-से होकर वन में विचर रहे थे। उनके नेत्र आनन्दमद से विह्वल हो रहे थे । गले में पुष्पों का हार शोभा पा रहा था। वैजयन्ती की माला पहने हुए आनन्दोन्मत्त हो रहे थे। उनके एक काम में कुण्डल झलक रहा था। मुखारविन्द पर मुसकराहट की शोभा निराली ही थी। उस पर पसीने की बूँदें हिमकण के समान जान पड़ती थीं । सर्वशक्तिमान् बलरामजी ने जलक्रीड़ा करने के लिये यमुनाजी को पुकारा। परन्तु यमुनाजी ने यह समझकर कि ये तो मतवाले हो रहे हैं, उनकी आज्ञा का उल्लंघन कर दिया; वे नहीं आयीं। तब बलरामजी ने क्रोधपूर्वक अपने हलकी नोक से उन्हें खींचा । और कहा ‘पापिनी यमुने! मेरे बुलाने पर भी तू मेरी आज्ञा का उल्लंघन करके यहाँ नहीं आ रही है, मेरा तिरस्कार कर रही है! देख, अब मैं तुझे तेरे स्वेच्छाचार का फल चखाता हूँ। अभी-अभी तुझे हल की नोक से सौ-सौ टुकड़े किये देता हूँ’।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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