अष्टसप्ततितम (78) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)
महाभारत: उद्योग पर्व: अष्टसप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद
- अर्जुन का कथन
तदनंतर अर्जुन ने कहा – जनार्दन ! मुझे जो कुछ कहना था , वह सब तो महाराज युधिष्ठिर ने ही कह दिया । शत्रुओं को संतप्त करनेवाले प्रभों ! आपकी बात सुनकर मुझे ऐसा जान पड़ता है कि आप धृतराष्ट्र के लोभ तथा हमारी प्रस्तुत दीनता के कारण संधि कराने का कार्य सरल नहीं समझ रहे हैं। अथवा आप मनुष्य के पराक्रम को निष्फल मानते हैं; क्योंकि पूर्वजन्म के कर्म (प्रारब्ध) के बिना केवल पुरुषार्थ से किसी फल की प्राप्ति नहीं होती। आपने जो बात कही है, वह ठीक है; परंतु सदा वैसा ही हो, यह नहीं कहा जा सकता । किसी भी कार्य को असाध्य नहीं समझना चाहिए।आप ऐसा मानते हैं कि हमारा यह वर्तमान कष्ट ही हमें पीड़ित करनेवाला है, परंतु वास्तव में हमारे शत्रुओं के किए हुए वे कार्य ही हमें कष्ट दे रहे हैं; जिंका उनके लिए भी कोई विशेष फल नहीं है। प्रभों ! जिस कार्य को अच्छी तरह किया जाय, वह सफल हो सकता है । श्रीकृष्ण ! आप ऐसा ही प्रयत्न करें, जिससे शत्रुओं के साथ हमारी संधि हो जाये। वीरवर ! जैसे प्रजापति ब्रहमाजी देवताओं तथा असुरों के भी प्रधान हितैषी हैं, उसी प्रकार आप हम पांडवों तथा कौरवों के भी प्रधान सुहृद हैं। इसलिए आप ऐसा प्रयत्न कीजिये, जिससे कौरवों तथा पांडवों के भी दु:ख का निवारण हो जाए । मेरा विश्वास है कि हमारे लिए हितकर कार्य करना आपके लिए दुष्कर नहीं है। जनार्दन ! ऐसा करना आपके लिए अत्यंत आवश्यक कर्तव्य है । प्रभों ! आप वहाँ जानेमात्र से यह कार्य सफलतापूर्वक सम्पन्न कर लेंगे। वीर ! उस दुरात्मा दुर्योधन के प्रति आपको कुछ और करना अभीष्ट हो, तो जैसी आपकी इच्छा होगी, वह सब कार्य उसी रूप में सम्पन्न होगा। श्रीकृष्ण ! कौरवों के साथ हमारी संधि हो अथवा आप जो कुछ करना चाहते हों, वही हो । विचार करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि आपकी जो इच्छा हो, वही हमारे लिए गौरव तथा समादर की वस्तु है । वह दुष्टात्मा दुर्योधन अपने पुत्रों और बंधु-बांधवों सहित वध के ही योग्य है, जो धर्मपुत्र युधिष्ठिर के पास आई हुई संपत्ति देखकर उसे सहन न कर सका । इतना ही नहीं, जब कपटद्यूत का आश्रय लेनेवाले उस क्रूरात्मा ने किसी धर्मसम्मत उपाय युद्ध आदि को अपने लिए सफलता देने वाला नहीं देखा, तब कपटपूर्ण उपाय से उस संपत्ति का अपहरण कर लिया। क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुआ कोई भी धनुर्धर पुरुष किसी के द्वारा युद्ध के लिए आमंत्रित होने पर कैसे पीछे हट सकता है ? भले ही वैसा करने पर उसके लिए प्राण-त्याग का संकट भी उपस्थित हो जाए। वृष्णिकुलनन्दन ! हम लोग अधमपूर्वक जुए में पराजित किए गए और वन में भेज दिये गए । यह सब देखकर मैंने मन-ही-मन पूर्णरूप से निश्चय कर लिया था कि दुर्योधन मेरे द्वारा वध के योग्य है। श्रीकृष्ण ! आप मित्रों के हित के लिए जो कुछ करना चाहते हैं, वह आपके लिए अद्भुत नहीं है । मृदु अथवा कठोर जिस उपाय से भी संभव है किसी तरह से अपना मुख्य कार्य सफल होना चाहिए। अथवा यदि आप अब कौरवों का वध ही श्रेष्ठ मानते हों तो वही शीघ्र-से-शीघ्र किया जाए । फिर इसके सिवा और किसी बात पर आपको विचार नहीं करना चाहिए ॥ आप जानते हैं, इस पापात्मा दुर्योधन ने भरी सभा में द्रुपदकुमारी कृष्णा को कितना कष्ट पहुंचाया था, परंतु हमने उसके इस महान् अपराध को भी चुपचाप सह लिया था ॥ माधव ! वही दुर्योधन अब पांडवों के साथ अच्छा बर्ताव करेगा, ऐसी बात मेरी बुद्धि में जँच नहीं रही है । उसके साथ संधि का सारा प्रयत्न ऊसर में बोये हुए बीज की भाँति व्यर्थ ही है। अत: वृष्णिकुलभूषण श्रीकृष्ण ! आप पांडवों के लिए अब से करने योग्य जो उचित एवं हितकर कार्य मानते हों, वही यथासंभव शीघ्र आरंभ कीजिये।
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयान पर्व में अर्जुन वाक्य विषयक अठहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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