महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 72 श्लोक 1-17

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द्विसप्ततितम (72) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: द्विसप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
राजा के लिये सदाचारी विद्वान पुरोहित की आवश्यकता तथा प्रजापालन का महत्व

भीष्मजी ने कहा-राजन्! राजा को चाहिये कि वह एक ऐसे विद्वान ब्राह्मण को अपना पुरोहित बनावे, जो उसके सत्कर्मों की रक्षा करे और उसे असत कर्म से दूर रखे ( तथा जो उसके शुभ की रक्षा और अशुभ का निवारण करे )। इस विषय में विद्वान लोग इला कुमार पुरूरवा तथा वायु के संवादरूप् प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते है। पुरूरवाने ने कहा- वायुदेव! ब्राह्मण की उत्पत्ति किससे हुई है? अन्य तीनों वर्ण भी किससे उत्पन्न हुए है तथा ब्राह्मण उन सबसे श्रेष्ठ क्यों है? यह मुझे स्पष्टरूप से बताने की कृपा करे। वायु ने कहा- नृपश्रेष्ठ! ब्राह्माजी के मुख से ब्राह्मण की, दोनों भुजाओं से क्षत्रिय की तथा दोनों ऊरूओं से वैश्य की सृष्टि हुई है। भरतश्रेष्ठ! इसके बाद इन तीनों वर्णों की सेवा के लिये ब्राह्माजी के दोनों पैरों से चैथे वर्ण शूद्र की रचना हुई। ब्राह्मण जन्मकाल से ही भूतल पर धर्मकोष की रक्षा के लिये अन्य सब वर्णों का नियन्त होता है। तदनन्तर ब्रह्माजी ने पृथ्वी पर शासन करने वाले और दण्ड धारण में समर्थ दूसरे वर्ण क्षत्रिय को प्रजाजनों की रक्षा के लिये नियुक्त किया। वैश्य धन -धान्य के द्वारा इन तीनों वर्णों का पोषण करे और शूद्र शेष तीनों वर्णों की सेवा में संलग्न रहे, यह ब्रह्माजी का आदेश है। पुरूरवाने पूछा- वायुदेव! धन-धान्यसहित यह पृथ्वी धर्मतः किसकी है? ब्राह्मण या क्षत्रिय की? यह मुझे ठीक-ठीक बताइये। वायुदेव ने कहा- राजन्! धर्म निपुण विद्वान ऐसा मानते है कि उत्तम स्थान से उत्पन्न और ज्येष्ठ होने के कारण इस पृथ्वी पर जो कुछ है, वह सब ब्राह्मण का ही है। ब्राह्मण अपना ही खाता, अपना ही पहनता और अपना ही देता है। निश्चय ही ब्राह्मण सब वर्णों का गुरू, ज्येष्ठ और श्रेष्ठ है। जैसे वाग्दान के अनन्तर पति के मर जाने पर स्त्री देवर को पति बनाती है*, उसी प्रकार पृथ्वी ब्राह्मण के बाद ही क्षत्रिय का पतिरूप् में वरण करती है, यह तुम्हें मैंने अनादि काल से प्रचलित प्रथम श्रेणी का नियम बताया है। आपत्तिकाल में इसमें फेर-फार भी हो सकता है। ’यस्या, म्रियते कन्याया वाचा सत्ये कृते पतिः। तामनेन विधानेन निजो विन्देत तेवरः यदि तुम स्वधर्म- पालन के फलस्वरुप स्वर्गलोक में उत्तम स्थान की खोज कर रहे हो ( चाहते हो ) तो जितनी भूमि पर तुम विजय प्राप्त करो, वह सब शास्त्र और सदाचार से सम्पन्न, धर्मज्ञ, तपस्वी तथा स्वधर्म से संतुष्ट ब्राह्यण को पुरोहित बनाकर सौंप दो, जो कि धनोपार्जन में आसक्त न हो। तथा जो सर्वतोभाव से परिपूर्ण अपनी बुद्धि के द्धारा राजा को सन्मार्ग पर ले जा सके; क्योंकि जो ब्राह्यण उत्तम कुल में उत्पन्न, विशुद्ध बु़िद्ध से युक्त और विनयशील होता है, वह विचित्र वाणी बोलकर राजा को कल्याण के पथ पर ले जाता है। जो ब्राह्यण का बताया हुआ धर्म है, उसी को राजा आचरण में लाता है। क्षत्रियधर्म मे तत्पर रहने वाला, अहंकारशून्य तथा पुरोहित की बात सुनने के लिये उत्सुक, उतने से ही सम्मान को प्राप्त हुआ विद्धान् नरेश चिरकालकतक यशस्वी बना रहता है तथा राजपुरोहित उसके सम्पूर्ण धर्म का भागीदार होता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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