महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 98 श्लोक 13-28

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अष्टनवतितम (98) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टनवतितम अध्याय: श्लोक 13-28 का हिन्दी अनुवाद

कवच धारण करके युद्ध की दीक्षा लेने वाला प्रत्येक योद्धा सेना के मुहाने पर जाकर इसी प्रकार संग्रामयज्ञ का अघिकारी होता है। अम्बरीष ने पूछा - शतक्रतो ! इस रणयज्ञ में कौन -सा हविष्य है? क्या घ्ृत है? कौन -सी दक्षिणा है और इसमें कौन-कौन -से ऋत्विज् बताये गये है? यह मुझसे कहिये । इंद्र ने कहा - राजन्् ! दस युद्धयज्ञ में हाथी ही ऋत्विज् है, धोड़े अध्वर्यु है, शत्रुओं का मांस ही हविष्य है और उनके रक्त को ही घृत कहा जाता है। सियार ,गीध कौए तथा अन्य मांसभक्षी पक्षी उस यज्ञशाला के सदस्य है, जो यज्ञावशिष्ट घृत (रक्त ) को पीते और यज्ञ सें अर्पित हविष्य (मांस) को खाते है। प्रास, तोमरसमूह खड्ग, शक्ति फर से आादि चमचमाते हुए तीखे और पानीदार शस्त्र यज्ञकर्ता के लिये स्त्रुक् का काम देते है। धनुष वेग से दूर तक जाने के कारण जो विशाल आकार धारण करता है, वह शत्रु के शरीर को विदीर्ण करने वाला तीखा, सीधा ,पैना और पानीदार बाण ही यजमान के हाथ में स्थित महान् स्त्रुव है। जो व्याघ्रचर्म की म्यान में बँधा रहता है, जिसकी मूँठ हाथी के दाँत की बनी होती है तथा जो गजराजों के शुण्डदण्ड को काट लेता है, वह खड्ग उस युद्ध में स्फ्य का काम देता है। उज्जवल और तेज धारवाले, सम्पूर्णतः लोहे के बने हुए तथा तीखे प्रास, शक्ति, ऋष्टि और परशु आदि अस्त्र-शस्त्रों द्वारा जो आघात किया जाता है, वही उस युद्धयज्ञ का बहुसंख्यक, अधिक समयसाध्य और कुलीन पुरूष द्वारा संगृहीत नाना प्रकार का द्रव्य है।वीरों के शरीर से संग्रामभूमि में बडे वेग से जो रक्त की धारा बहती है, वही उस युद्धयज्ञ के होम में समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाली समृद्धिशालिनी पूर्णाहुति है। सेना के मुहाने पर जो काट डालो, फाड डालो आदि का भयंकर शब्द सुना जाता है, वही सामगान है। सैनिकरूपी सामगायक शत्रुओं को यमलोक में भेजने के लिये मानो सामगान करते है। शत्रुओं की सेना का प्रमुख भाग उस वीर यजमान के लिये हविर्धान ( हविष्य रखने का पात्र ) बताया गया है। हाथी, घोडे और कवचधारी वीर पुरूषों के समूह ही उस युद्धयज्ञ के श्येनचित नामक अग्नि है। सहस्त्रों वीरों के मारे जाने पर जो कबन्ध खडे दिखायी देते है, वे ही मानो उस शूरवीर के यज्ञ में खदिरकाष्ठ के बने हुए आठ कोणवाले यूप कहे गये है। राजन्! वाणीद्धारा ललकारने और महावतों के अंकुशों की मार खाने पर हाथी जो चिग्घाड़ते हैं, कोलाहल और करतलध्वनिके साथ होने वाली वह चिग्घाड़ने की आवाज उस यज्ञ में वषट्कार है। नरेश्वर! स्ंग्राम में जिस दुन्दुभि की गम्भीर ध्वनि होती है, वही सामवेद के तीन मन्त्रों का पाठ करने वाला उद्गाता है। जब लुटेरे ब्राह्यण के धन का अपहरण करते हों, उस समय वीर पुरूष उनके साथ किये जाने वाले युद्ध में अपने प्रिय शरीर के त्याग के लिये जो उघम करता है अथवा जो देहरूपी यूपका उत्सर्ग करके प्रहार ही कर बैठता है, उसका वह युद्ध ही अनन्त दक्षिणाओं से युक्त यज्ञ कहलाता है। जो शूरवीर अपने स्वामी के लिये सेना के मुहाने पर खडा़ होकर पराक्रम प्रकट करत है और भय से कभी पीठ नहीं दिखाता, उसको मेरे समान लोकों की प्राप्ति होता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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