महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 58-79

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चतुर्दश (14) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: चतुर्दश अध्याय: श्लोक 58-79 का हिन्दी अनुवाद

कोई पीपल के फल खाकर रहते, कोई जल में ही सोते तथा कुछ लोग चरी, वल्‍कल और मृगचर्म धारण करते थे। अत्‍यंत कष्‍टसाध्‍य नियमों का निर्वाह करते हुए विविध तपस्‍वी मुनियों का दर्शन हुए मैंने उस महान आश्रम में प्रवेश करने का उपक्रम किया। भरतवंशी नरेश ! महात्‍मा तथा पुण्‍यकर्मा शिव आदि देवताओं से समादृत हो वह आश्रममण्‍डल सदा ही आकाश में चन्‍द्रमण्‍डल की भांति शोभा पाता था। वहां तीव्र तपस्‍यावाले महात्‍माओं के प्रभाव तथा सांनिध्‍य से प्रभावित हो नेवले सांपों केा साथ खेलते थे और व्‍याघ्र मृगों के साथ मित्र की भांति रहते थे। वेद-वेदांगों के पारंगत विद्वान श्रेष्‍ठ ब्रह्माण जिसका सेवन करते थे तथा नाना प्रकार के नियमों द्वारा विख्‍यात हुए महात्‍मा महर्षि जिसकी शोभा बढ़ाते थे, समस्‍त प्राणियों के लिये मनोरम उस श्रेष्‍ठ आश्रम में प्रवेश करते ही मैंने जटावल्‍कलधारी, प्रभावशाली, तेज और तपस्‍या से अग्नि के समान देदीप्‍यमान, शान्‍तस्‍वभाव और युवावस्‍था से सम्‍पन्‍न ब्रह्माणशिरोमणि उपमन्‍यु को शिष्‍यों से घिरकर बैठा देखा। मैंने मस्‍तक झुकाकर उन्‍हें प्रणाम किया । मुझे वन्‍दना करते देख उपमन्‍यु बोले - 'पुण्डरीकाक्ष ! आपका स्‍वागत है । आप पूजनीय होकर मेरी पूजा करते हैं और दर्शनीय होकर मेरा दर्शन चाहते हैं, इससे हम लोगों की तपस्‍या सफल हो गयी'। तब मैंने हाथ जोड़कर आश्रम के मृग, पक्षी, अग्निहोत्र धर्माचरण तथा शिष्‍य वर्ग का कुशल-समाचार। अधोक्षज ! आप महान तप का आश्रय लेकर यहां सर्वेश्‍वर भगवान शिवको संतुष्‍ट कीजिये। यहां महादेवजी अपनी पत्‍नी भगवती उमा के साथ क्रीड़ा करते हैं। जनार्दन ! यहां सुरश्रेष्‍ठ महादेवजी को तपस्‍या, ब्रह्माचर्य, सत्‍य और इन्द्रिय-संयम द्वारा संतुष्‍ट करके पहले कितन ही देवता और महर्षि अपने शुभ मनोरथ प्राप्‍त कर चुके हैं। शत्रुनाशक श्रीकृष्‍ण ! आप जिनकी प्रार्थना करते हैं, वे तेज और तपस्‍या की निधि अचिन्‍त्‍य भगवान शंकर यहां शम आदि शुभ भावों की सृष्टि और काम आदि अशुभ भावों का संहार करते हुए देवी पार्वती के साथ सदा विराजमान रहते हैं। पहले जो मेरूपर्वत को भी कम्पित कर देने वाला हिरण्‍यकशिपु नामक दानव हुआ था, उसने भगवान शंकर से एक अर्बुद (दस करोड़) वर्षो तक के लिये सम्‍पूर्ण देवताओं का ऐश्‍वर्य प्राप्‍त किया था। उसी का श्रेष्‍ठ पुत्र मन्‍दार नाम से विख्‍यात हुआ, जो महादेव जी के वर से एक अर्बुद वर्षों तक इन्‍द्र के साथ युद्ध करता रहा। तात केशव ! भगवान विष्‍णु का वह भयंकर चक्र तथा इन्‍द्र का वज्र भी पूर्वकाल में उस ग्रह के अंगों पर पुराने तिनकों के समान जीर्ण-शीर्ण-सा हो गया था। निष्‍पाप श्रीकृष्‍ण ! पूर्वकाल में जल के भीतर रहने वाले गर्वीले दैत्‍य को मारकर भगवान शंकर ने आपको जो चक्र प्रदान किया था, उस अग्नि के समान तेजस्वी शस्‍त्र को स्‍वयं भगवान वृषध्‍वज ने ही उत्‍पन्‍न किया और आपको दिया था, वह अस्‍त्र अद्भूत तेज से युक्‍त एवं दुर्धर्ष है। पिनाकपाणि भगवान शंकर को छोड़कर दूसरा कोई उसको देख नहीं सकता था । उस समय भगवान शंकर ने कहा - 'यह अस्‍त्र सुदर्शन (देखने में सुगम) हो जाय' तभी से संसार में उसका सुदर्शन नाम प्रचलित हो गया । तात केशव ! ऐसा प्रसिद्ध अस्‍त्र भी उस ग्रह के अंगों पर जीर्ण-सा हो गया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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