महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 142 श्लोक 1-11

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द्विचत्‍वारिंशदधिकशततम (142) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: द्विचत्‍वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद
आपत्‍काल में राजा के धर्म का निश्‍चय तथा उत्‍तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश

यु‍धिष्ठिर ने पूछा- यदि महापुरूषों के लिये भी ऐसा भंयकर कर्म (संकट काल में) कर्तव्‍य रूप से बता दिया गया तो दुराचारी डाकुओं और लुटेरों के दुष्‍कर्मों की कौन–सी ऐसी सीमा रह गयी है, जिसका मुझे सदा ही परित्‍याग करना चाहिये? (इससे अधिक घोर कर्म तो दस्‍यु भी नहीं कर सकते )। आपके मुंह से यह उपाख्‍यान सुनकर मैं मोहित एवं विषादग्रस्‍त हो रहा हूं। आपने मेरा धर्मविषयक उत्‍साह शिथिल कर दिया। मैं अपने मन को बारंबार समझा रहा हूं तो भी अब कदापि इसमें धर्मविषयक उघम के लिये उत्‍साह नहीं पाता हूं। भीष्‍म जी ने कहा- वत्‍स! मैंने केवल शास्‍त्र से ही सुनकर तुम्‍हारे लिये यह धर्मोपदेश नहीं किया है। जैसे अनेक स्‍थान से अनेक प्रकार के फूलों का रस लाकर मक्खियां मधु का संचय करती हैं, उसी प्रकार विद्वानों ने यह नाना प्रकार की बुद्धियों (विचारों) का संकलन किया है (ऐसी बुद्धियों का कदाचित् संकटकाल में उपयोंग किया जा सकता है। ये सदा काम में लेने के लिये नहीं कही गयी हैं; अत: तुम्‍हारे मन में मोह या विषाद नहीं होना चाहिये )। युधिष्ठिर! राजा को इधर-उधर से नाना प्रकार के मनुष्‍यों के निकट से भिन्‍न–भिन्‍न प्रकार की बुद्धियॉ सीखनी चाहिये । उसे एक ही शाखा वाले धर्म को लेकर नहीं बैठे रहना चाहिये। जिस राजा में संकट के समय यह बुद्धि स्‍फुरित होती है, वह आत्‍मरक्षा का कोई उपाय निकाल लेता है। कुरूनन्‍दन! धर्म और सतपुरूषों का आचार- ये बुद्धि से ही प्रकट होते है और सदा उसी के द्वारा जाने जाते हैं। तुम मेरी इस बात को अच्‍छी तरह समझ लो। विजय की अभिलाषा रखने वाले एवं बुद्धि मे श्रेष्‍ठ सभी राजा धर्म का आचरण करते हैं। अत: राजा को इधर–उधर से बुद्धि के द्वारा शिक्षा लेकर धर्म का भलीभॉति आचरण करना चाहिये। एक शाखा वाले (एकदेशीय ) धर्म से राजा का धर्म-निर्वाह नहीं हेाता । जिसने पहले अध्‍ययनकाल में एकदेशीय धर्मविषयक बुद्धि की शिक्षा ली, उस दुर्बलराजा को पूर्ण प्रज्ञा कहां से प्राप्‍त हो सकती है? एक ही धर्म या कर्म किसी समय धर्म माना जाता है और किसी समय अधर्म । उसकी जो यह दो प्रकार की स्थिति है, उसी का नाम द्वैध है। जो इस द्विविधतत्‍व को नहीं जानता, वह द्वैधमार्ग पहॅुचकर संशय में पड़ जाता है। भरतनंदन! बुद्धि के द्वैध को पहले ही अच्‍छी तरह समझ लेना चाहिये। बुद्धिमान् पुरूष विचार करते समय पहले अपने प्रत्‍येक कार्य को गुप्‍त रखकर उसे प्रारम्‍भ करे; फिर उसे सर्वत्र प्रकाशित करे; अन्‍यथा उसके द्वारा आचरण में लाये हुए धर्म को लोग किसी और ही रूप में समझने लगते हैं। कुछ लोग यथार्थ ज्ञानी हेाते हैं और कुछ लोग मिथ्‍या ज्ञानी, इस बात को ठीक–ठीक समझकर राजा सत्‍यज्ञानसम्‍पन्‍न सत्‍पुरूषों के ही ज्ञान को ग्रहण करते है । धर्मद्रोही मनुष्‍य शास्‍त्रों की प्रामाणिकतापर डाका डालते हैं, उन्‍हें अग्राह्य ओर अमान्‍य बताते हैं। वे अर्थज्ञान से शून्‍य मनुष्‍य अर्थशास्‍त्र की विषमता का मिथ्या प्रचार करते है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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