महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 96 भाग 5
षण्णवतितम (96) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
इसके विपरीत करने वाला मानव कल्याण का भागी नहीं होता है, अतः शूद्र को संन्यासियों की सेवा करके सदा अपना कल्याण करना चाहिये । मनुष्य इस लोक में जो कल्याणकारी कार्य करता है, उसका फल मृत्यु के पश्चात उसे प्राप्त होता है। जिसे वह अपना कर्तव्य समझता है, उस कार्य को वह दोष दृष्टि न रखते हुए करे। दोष दृष्टि रखते हुए जो कार्य किया जाता है, उसका फल इस जगत में बड़े दुःख से प्राप्त होता है । शूद्र को चाहिये कि वह प्रिय वचन बोले, क्रोध को जीते, आलस्य दूर भगादे, ईर्ष्या-द्वेष से रहित हो जाये, क्षमाशील, शीलवान तथा सतधर्म में तत्पर रहे। आपत्तिकाल में वह संन्यासियों के आश्रम में जाकर उनकी सेवा करे । ‘यही मेरा परम धर्म है, इसी के द्वारा मैं अत्यन्त दुस्तर घोर-संसार सागर से पार हो जाऊंगा। इसमें संशय नहीं है। मैं निर्भय होकर इस देह का त्याग करके परमगति को प्राप्त हो जाऊंगा। इससे बढ़कर मेरे लिये दूसरा कोई कर्तव्य नहीं है। यही सनातन धर्म है।’ मन-ही-मन ऐसा विचार करके प्रसन्नचित्त हुआ शूद्र वुद्वि को एकाग्र करके सदा उत्तम शुश्रूषा-धर्म का पालन करे । शूद्र को चाहिये कि वह नियम पूर्वक सेवा में तत्तपर रहे, सदा यज्ञ शिष्ट अन्न भोजन करे। मन और इन्द्रियों को वश में रखे और सदा कर्तव्या कर्तव्य को जाने । सभी कार्यो में जो आवश्यक कृत्य हों, उन्हें करके ही दिखावे। जैसे-जैसे सन्यासी को प्रसन्नता हो, उसी प्रकार उसका कार्य साधन करे। जो कार्य सन्यासी के लिये हितकर न हो, उसे कदापि ने करे । जो कार्य संन्यास-आश्रम के विरूद्व न हो तथा जो धर्म के अनुकूल हो, शुभ की इच्छा रखने वालो शूद्र को वह कार्य सदा विना विचारे ही करना चाहिये। मन-वाणी और क्रिया द्वारा सदा ही उन्हें संतुष्ट रखें। जब वे सन्यासी खड़े हों, तब सेवा करने वाले शूद्र को स्वयं भी खड़ा रहना चाहिये तथा जब वे कहीं जा रहे हो तब उसे स्वयं भी उनके पीछे-पीछे जाना चाहिये। यदि वे आसन पर बैठे हों तब वह स्वयं भी भूमि पर बैठे। तात्पर्य है कि सदा ही उनका अनुसरण करता रहे ।। रात्रि के कार्य पूरा करके प्रतिदिन उनसे आज्ञा लेकर विधि पूर्वक स्नान करके उनके लिये जल से भरा हुआ कलश ले आकर रखे। फिर संन्यासियों के स्थान पर जाकर उन्हें विधिपूर्वक प्रणाम करे इन्द्रियों को संयम में रखकर ब्राह्माण आदि गुरूजनों को प्रणाम करे। इसी प्रकार स्वधर्म का अनुष्ठान करने वाले आचार्य आदि को नमस्कार एवं अभिवादन करे। उनका कुशल समाचार पूछे। पहले जो शूद्र आश्रम के कार्य में सिद्वहस्त हों, उनका स्वयं भी सदा अनुकरण करे, उनके समान कार्य परायण हों। अपने समान धर्माशूद्र को प्रणाम करे, दूसरे शूद्रों को कदापि नहीं । संन्यासियों अथवा आश्रम के दूसरे व्यक्तियों को कहे बिना ही प्रतिदिन नियम पूर्वक उठे और झाड़ू देकर आश्रम की भूमि को लीप-पोत दे। तत्पश्चात् धर्म के अनुसार फूलों का संग्रह करके पूजनीय देवता की उन फूलों द्वारा पूजा करे। इसके बाद आश्रम से निकलर तुरंत ही दूसरे कार्य में लग जाये । आश्रमवासियों के स्वाध्याय में विघ्न न पड़े, इसके लिये सदा सचेष्ट रहे। जो स्वाध्याय में विघ्न डालता है, वह पाप का भागी होता है ।
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