महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 267 श्लोक 1-12

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सप्‍तषष्‍टयधिकद्विशततम (267) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: सप्‍तषष्‍टयधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 1-12 अध्याय: का हिन्दी अनुवाद

द्युमत्‍सेन और सत्‍यवान् का संवाद – अहिंसापूर्वक राज्‍यशासन की श्रेष्‍ठता का क्‍थन

युधिष्ठिर ने पूछा –सत्‍पुरूषों में श्रेष्‍ठ पितामह ! मैं आपसे यह पूछ रहा हूं कि राजा किस प्रकार प्रजा की रक्षा करे, जिससे उसको किसी की हिंसा न करनी पड़े; वह आप मुझे बताने की कृपा करें। भीष्‍म जी ने कहा – युधिष्ठिर ! इस विषय में राजा सत्‍यवान के साथ उनके पिता द्युमत्‍सेन का जो संवाद हुआ था, उसी प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। हमने सुना है कि एक दिन सत्‍यवान ने देखा कि‍ पिता की आज्ञा से बहुत-से अपराधी शूली पर चढा देने के लिये ले जाये जा रहे हैं। उस समय उन्‍होंने पिता के पास जाकर ऐसी बात कही, जो पहले किसी ने नहीं कही थी। ‘पिताजी ! यह सत्‍य है कि कभी ऊपर से धर्म-सा दिखायी देने वाला कार्य अधर्मरूप हो जाता है और अधर्म भी धर्म के रूप में परिणत हो जाता है, तथापि किसी प्राणी का वध करना भी धर्म हो- ऐसा कदापित नहीं हो सकता’। द्युमत्‍सेन ने कहा- बेटा सत्‍यवान ! यदि अपराधी का वध न करना भी कभी धर्म हो तो अधर्म क्‍या हो सकता है ? यदि चोर-डाकू मारे न जाएं तो प्रजा में वर्णसंकरता और धर्मसंकरता फैल जाय। कलियुग आने पर तो लोग ‘यह वस्‍तु मेरी है, इसकी नहीं है’ ऐसा कहकर सीधे ही दूसरों का धन हड़़प लेंगे। इस तरह लोकयात्रा का निर्वाह असम्‍भव हो जायेगा। यदि तुम इसका कोई समाधान जानते हो, तो मुझसे बताओ। सत्‍यवान बोले- पिताजी ! क्षत्रिय , वैश्‍य तथा शूद्र – इन तीनों वर्णों को ब्राह्मणों के अधीन कर देना चाहिये। जब चारों वर्णों के लोग धर्म के बन्‍धन में बँधकर उसका पालन करने लगेंगे तो उनकी देखा-देखी दूसरे मनुष्‍य सूत-मागध आदि भी धर्म का आचरण करेंगे। इनमें से जो भी ब्राह्मण की आज्ञा के विपरीत आचरण करे, उसके विषय में ब्राह्मण को राजा के पास जाकर कहना चाहिये कि “अमुक मनुष्‍य मेरी बात नहीं सुनता है’। तब राजा उसी व्‍यक्ति को दण्‍ड दे। जो दण्‍ड-विधान शरीर के पांचों तत्‍वों को अलग-अलग न कर सके अर्थात किसी के प्राण न ले, उसी का प्रयोग करना चाहिये। नीतिशास्‍त्र की आलोचना और अपराधी के कार्यपर भलीभांति विचार किये बिना ही इसके विपरीत कोई दण्‍ड नहीं देना चाहिए। राजा डाकुओं अथवा दूसरे बहुत-से निरपराध मनुष्‍यों को मार डालता है और इस प्रकार उसके द्वारा मारे गये पुरूष के पिता-माता, स्‍त्री और पुत्र आदि भी जीविका का कोई उपाय न रह जाने के कारण मानो मार दिया जाते हैं, अत: किसी दूसरे के अपकार करने पर राजा को भलीभांति विचार करना चाहिये। (जल्‍दबाजी करके किसी को प्राणदण्‍ड नहीं देना चाहिये)। दुष्‍ट पुरूष भी कभी साधुसंग से सुधरकर सुशील बन जाता है तथा बहुत-से दुष्‍ट पुरूषों की संताने भी अच्‍छी निकल जाती हैं। इस लिये दुष्‍टों को प्राणदण्‍ड देकर उनका मूलोच्‍छेद नहीं करना चाहिए। किसी की जड़ उखाड़ना सनातन धर्म नहीं है। अपराध के अनुरूप साधारण दण्‍ड देना चाहिये, उसी से अपराधी के पापों का प्रायश्चित हो जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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