महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 148 श्लोक 1-20

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अष्‍टचत्‍वारिंशदधिकशततम (148) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: अष्‍टचत्‍वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

द्रोणाचार्य, विदुर तथा गान्‍धारी के युक्तियुक्‍त एवं महत्‍तवपूर्ण वचनों का भगवान श्रीकृष्‍ण के द्वारा कथन

भगवान श्रीकृष्‍ण कहते हैं—राजन ! तुम्‍हारा कल्‍याण हो। भीष्‍मजी की बात समाप्‍त होने पर प्रवचन करने में समर्थ द्रोणाचार्य ने राजाओं के बीच में दुर्योधन से इस प्रकार कहा-तात ! जैसे प्रतीपपुत्र शान्‍तनु इस कुलकी भलाई में ही लगे रहे, जैसे देवव्रत भीष्‍म इस कुलकी वृद्धि के लिए ही यहां स्थित हैं, उसी प्रकार सत्‍यप्रतिज्ञ एवं जितेन्द्रिय राजा पाण्‍डु भी रहे हैं। वे कुरूकुलके राजा होते हुए भी सदा धर्म में ही मन लगाये रहते थे। वे उत्‍तम व्रत के पालक तथा चित्‍त को एकाग्र रखने वाले थे। कुरूवंश की वृद्धि करनेवाले पाण्‍डु ने अपने बडे़ भाई बुद्धिमान धृतराष्‍ट्र को तथा छोटे भाई विदुर को अपना राज्‍य धरोहर रूप से दिया। राजन ! कुरूकुलरत्‍न पाण्‍डु ने अपनी मर्यादा से कभी च्‍युत न होनेवाले धृतराष्‍ट्र को सिंहासन पर बिठाकर स्‍वयं अपनी दोनों स्त्रियों के साथ वनको प्रस्‍थान किया था। तदन्‍तर पुरूषसिंह विदुर सेवक की भांति नीचे खडे़ होकर चंवर डुलाते हुए विनीतभाव से धृतराष्‍ट्र की सेवा में रहने लगे। तात ! तदनन्‍तर सारी प्रजा जैसे राजा पाण्‍डु के अनुगत रहती थी, उसी प्रकार विधिपूर्वक राजा धृतराष्‍ट्र के अधीन रहने लगी। इस प्रकार शत्रुओं की राजधानी पर विजय पानेवाले पाण्‍डु विदुर‍सहित धृतराष्‍ट्र को अपना राज्‍य सौंपकर सारी पृथ्‍वी पर विचरने लगे। सत्‍यप्रतिज्ञ विदुर कोष को संभालने, दान देने, भृत्‍यवर्ग की देख-भाल करने तथा सबके भरण-पोषण के कार्य में संलग्‍न रहते थे। शत्रु नगरी को जीतनेवाले महातेजस्‍वी भीष्‍म संधि-विग्रह के कार्य में संयुक्‍त हो राजाओं से सेवा और कर आदि लेने का काम संभालते थे। महाबली राजा धृतराष्‍ट्र केवल सिंहासन पर बैठे रहते और महात्‍मा विदुर सदा उनकी सेवा में उपस्थित रहते थे। उन्‍हीं के वंश में उत्‍पन्‍न होकर तुम इस कुल में फूट क्‍यों डालते हो? राजन्‍ ! भाइयों के साथ मिलकर मनोवांच्छित भोगों का उपभोग करो। नृपश्रेष्‍ठ मैं दीनता से या धन पाने के लिये किसी प्रकार कोई बात नहीं कहता हूं। मैं भीष्‍म का दिया हुआ पाना चाहता हूं, तुम्‍हारा दिया नही। जनेश्‍वर ! मैं तुमसे कोई जिविका का साधन प्राप्‍त करने की इच्‍छा नहीं करूंगा। जहां भीष्‍म हैं, वहीं द्रोण हैं। जो भीष्‍म कहते हैं, उसका पालन करो। शत्रुसूदन ! तुम पाण्‍डवों का आधा राज्‍य दे दो। तात ! मेरा यह आचार्यत्व तुम्‍हारे और पाण्‍डवों के लिये सदा समान है। मेरे लिये जैसा अश्‍वत्‍थामा है वैसा ही श्‍वेत घोडोंवाला अर्जुन भी है । अधिक बकवाद करने से क्‍या लाभ? जहां धर्म है, उसी पक्षकी विजय निश्चित है। भगवान श्रीकृष्‍ण कहते हैं- महाराज ! अमित-तेजस्‍वी द्रोणाचार्यके इस प्रकार कहनेपर सत्‍यप्रतिज्ञ धर्मज्ञ विदुरने ज्‍येष्‍ठ पिता भीष्‍म की ओर घूमकर उनके मुँहकी ओर देखते हुए इस प्रकार कहा। विदुर बोले—देवव्रतजी ! मेरी यह बात सुनिये । यह कौरववंश नष्‍ट हो चला था, जिसका आपने पुन: उद्धार किया था। मैं भी उसी वंशकी रक्षा के लिये विलाप कर रहा हूँ; परंतु न जाने क्‍यों आप मेरे कथनकी उपेक्षा कर रहा हैं; मैं पूछता हूँ, यह कुलांगार दुर्योधन इस कुलका कौन है? जिसके लोभके वशीभूत होनेपर भी आप उसकी बुद्धिका अनुसरण कर रहे हैं। लोभने इसकी विवेकशक्ति हर ली है। इसकी बुद्धि दू‍षित हो गयी है तथा यह पूरा अनार्य बन गया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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