महाभारत वन पर्व अध्याय 137 श्लोक 1-19

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सप्‍तत्त्रिं‍शदधि‍कशततम (137) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )

महाभारत: वन पर्व: सप्‍तत्त्रिं‍शदधि‍कशततम अध्‍याय: श्लोक 17-20 का हिन्दी अनुवाद


भरद्वाज का पुत्र शोक से वि‍लाप करना, रैभ्‍यमुनि‍ को शाप देना एवं स्‍वयं अग्‍नि‍ मे प्रवेश करना

लोमशजी कहते है- कुन्‍तीनन्‍दन ! भरद्वाज मुनि‍ प्रति‍दि‍न का स्‍वाध्‍याय पूरा करके बहुत सी समि‍धाएं लि‍ये आश्रम में आये। उस दि‍न से पहले सभी अग्‍नि‍यां उनको देखते ही उठाकर स्‍वागत करती थी, परंतु उस सयम उनका पुत्र मारा गया था, इसलि‍ये अशौचयुक्‍त होने के कारण उनका अग्‍नि‍यों ने पूर्ववत खड़े होकर स्‍वागत नहीं कि‍या । अग्‍नि‍होत्र में यह वि‍कृती देखकर उन महातपस्‍वी भरद्वाज ने वहां बैठे हुए अन्‍धें गृहरक्षक शु्द्र से पूछा- ‘दास ! क्‍या कारण है कि‍ आज अग्‍नि‍यां पूर्ववत्‍ मेरा दर्शन करकें प्रसन्‍नता नहीं प्रकट करती हैं। इधर तुम भी पहले जैसे समादर का भाव नहीं दि‍खाते हो । इस आश्रम में कुशल तो है न । कहीं मेरा मन्‍धबुद्धि‍ पुत्र रैभ्‍य के पास तो नहीं चला गया। यह बात मुझे बताओ; क्‍योकि‍ मेरा मन शान्‍त नहीं हो पा रहा है’ । शुद्र बोला- भगवान ! अवश्‍य ही आपका मन्‍दमति‍ पुत्र रैभ्‍य के यहां गया था। उसी का यह फल है कि‍ एक महाबली राक्षस के द्वारा मारा जाकर पृथ्‍वी पर पड़ा है । राक्षस हाथ में शूल लेकर इसका पीछा कर रहा था और यह अग्‍नि‍शाला में घुसा जा रहा था। उस समय मैंने दोनों हाथों से पकड़कर इसे द्वारपर ही रोक लि‍या । नि‍श्‍चय ही अपवि‍त्र होने के कारण यह शुद्धि‍ के लि‍ये जल लेने की इच्‍छा रखकर यहां आया था, परंतु मेरे रोक देने से यह हताश हो गया। उस दशा में उस शूलधारी राक्षस ने इसके उपर बड़े वेग से प्रहार करके इसे मार डाला । शूद्र का कहा हुआ यह अत्‍यनत अप्रि‍य वचन सुनकर भरद्वाज बड़े दुखी हो गये और अपने प्राणशून्‍य पुत्र को लेकर वि‍लाप करने लगे । भरद्वाज ने कहा- बेटा ! तुमने ब्राह्मणों के हि‍त के लि‍ये भारी तपस्‍या की थी। तुम्‍हारी तपस्‍या का यह उद्देश्‍य था कि‍ द्वि‍जों जो बि‍ना पढ़े ही सब वेदों का ज्ञान हो जाय । इस प्रकार महात्‍मा ब्राह्मणों के प्रति‍ तुम्‍हारा स्‍वभाव अत्‍यन्‍त कलयाणकारी था। कि‍सी भी प्राणी के प्रति‍ तुम कोई अपराध नहीं करते थ। फि‍र भी तुम्‍हारा स्‍वभाव कुछ कठोर हो गया था । तात ! मैंने तुम्‍हें बार बार मना कि‍या था कि‍ तुम रैभ्‍य के आश्रम कि‍ ओर न देखना, परंतु तुम उसे देखने चले ही गये और वह तुम्‍हारे लि‍ये काल, अन्‍तक एवं यमराज के समान हो गया। महान तेजस्‍वी होने पर भी उसकी बुद्धि‍ बड़ी खोटी है। वह जानता था कि‍ मुझ बुढ़े के तुम एक ही पुत्र है तो भी वह दुष्‍ट क्रोध के वशीभूत हो ही गया । बेटा ! आज रैभ्‍य के इस कठोर कर्म के मुझे पुत्रशोक प्राप्‍त हुआ है। तुम्‍हारे बि‍ना मैं इस पृथ्‍वी पर अपने परम प्रि‍य प्राणों का भी परि‍त्‍याग कर दूगां । जैसे मैं पापी अपने पुत्र के शोक से व्‍याकुल हो अपने शरीर का त्‍याग कर रहा हूं, उसी प्रकार रैभ्‍य का ज्‍येष्‍ट पुत्र अपने नि‍‍रपराध पि‍ता की शीघ्र हत्‍या कर डालेगा । संसार मे वे मनुष्‍य सुखी है, जि‍न्‍हें पुत्र पैदा ही नहीं हुआ है; क्‍योंकि‍ वे पुत्रशोक का अनुभव न करके सदा सुख पूर्वक वि‍चरते है । जो पुत्रशोक से मन ही मन व्‍याकुल हो गहरी व्‍यथा का अनुभव करते हुए अपने प्रि‍य मित्रों को भी शाप दे डालते है, उनसे बढ़कर महापापी दूसरा कौन हो सकता है । मैंने अपने पुत्र की मृत्‍यु देखी और प्रि‍य मि‍त्र को शाप दे दि‍या। मेरे सि‍वा संसार मे दूसरा कौन सा मनुष्‍य है, जो ऐसी वि‍पत्‍ती का अनुभव करेगा । लोमशजी कहते है – युधि‍ष्‍ठि‍र ! इस तरह भांति‍ भांति‍ के वि‍लाप करके भरद्वाज ने अपने पुत्र का दाह संस्‍कार कि‍या तत्‍पश्‍चात स्‍वयं भी वे जलती आग में प्रवेश कर गये ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत के वनपर्व के अन्‍तर्गत तीर्थयात्रा पर्व में लोमशजी तीर्थ यात्रा के प्रसंग में यवक्रीतोपाख्‍यान वि‍षयक एक सौ सैतींसवा अध्‍याय पूरा हुआ ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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