महाभारत आदि पर्व अध्याय 67 श्लोक 155-164
सप्तषष्टितम (67) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
नरेश्वर ! वे अप्सरायें मनुष्य लोक में सोलह हजार देवियों के रूप में उत्पन्न हुई थीं जो सब-की-सब भगवान श्रीकृष्ण की पत्नियां हुईं। नारायण स्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण को आनन्द प्रदान करने के लिये भूतल पर विदर्भ राज भीष्म के कुल में सतीसाध्वी रूकमणि देवी के नाम से लक्ष्मीजी का ही अंश प्रकट हुआ था। सती-साध्वी द्रौपदी शची के अंश से उत्पन्न्न हुई थी। वह राजा द्रौपद के कुल में यज्ञ की वेदी के मध्य भाग से एक अनिन्द्य सुन्दरी कुमारी कन्या के रूप में पकट हुई थी। उसके अंगों से नीलकमल की सुगन्ध फैलती रहती थी। उसके नेत्र कमल के समान सुन्दर और विशाल थे। नितम्ब भाग बड़ा ही मनोहर था और उसके काले-काले घुघराले बालों का सौन्दर्य भी अद्भुत था। वह समस्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न तथा वैदुर्य मणि के समान कान्तिमति थी। एकान्त में रहकर वह पांचों पुरूषों प्रवर पाण्डवों के मन को मुग्ध किये रहती थी। सिद्वि और धृति नाम वाली जो दो देवियां हैं, वे ही पांचों पाण्डवों की दोनों माताओं- कुन्ती और माद्री के रूप में उत्पन्न हुई थी। सुबल-नरेश की पुत्री गान्धारी के रूप में साक्षात मति देवी ही प्रकट हुई थी। राजन् ! इस प्रकार तुम्हें देवताओं, असुरों, गन्धर्वों, अप्सराओं तथा राक्षसों के अंशों का अवतरण बताया गया। युद्व में उन्मत्त रहने वाले जो-जो राजा इस पृथ्वी पर उत्पन्न हुए थे और जो-जो महात्मा क्षत्रीय यादवों के विशाल कुल में प्रकट हुए थे, वे ब्राहम्ण, क्षत्रीय अथवा वैश्य जो भी रहे हैं, उन सबके स्वरूप का मैंने परिचय तुम्हें दे दिया है। मनुष्य को चाहिये कि वह दोष-दृष्टि का त्याग करके इस अंशावरतरण के प्रसंग को सुने। यह धन, यश, पुत्र, आयु तथा विजय की प्राप्ति कराने वाला है। देवता, गन्धर्व तथा राक्षसों के इस अंशावतरण को सुनकर विश्व की उत्पत्ति और प्रलय के अधिष्ठान परमात्मा के स्वरूप को जानने वाला प्राज्ञ बड़ी-बड़ी विपत्तियों में भी दुखी नहीं होता।
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