महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 285 श्लोक 32-44
पञ्चाशीत्यधिकद्विशततम (285) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
इस प्रकार बुद्धि की जितनी अवस्थाएँ हैं उनकी व्याख्या यहाँ कर दी गयी । यह सब जानकर मनुष्य ज्ञानी जो जाता है। इसके सिवा ज्ञानी का और क्या लक्षण हो सकता है ? बुद्धि और क्षेत्रज्ञ (आत्मा) – ये दोनों में जो अन्तर है, उसे समझो। इनमें से एक अर्थात बुद्धि तो गुणों की सृष्टि करती है और दूसरा (आत्मा) गुणों की सृष्टि नहीं करता – केवल साक्षी भाव से देखता रहता है । वे दोनों बुद्धि और क्षेत्रज्ञ स्वभावत: एक-दूसरे से भिन्न है, परंतु सदा परस्पर मिले हुए-से प्रतीत होते हैं। जैसे मछली जल से भिन्न है तो भी उससे सदा संयुक्त रहती है, उसी प्रकार बुद्धि और आत्मा परस्पर भिन्न होते हुए भी अभिन्न रहते हैं । सत्व आदि गुण जड़ होने के कारण आत्मा को नहीं जानते; परंतु आत्मा चेतन है, इसलिये गुणों को पूर्णरूप से जानता है। वह गुणों का साक्षी है तथापि मूढ मनुष्य उसे गुणों से संश्लिष्ट या संयुक्त कहते हैं । बुद्धि जब सत्वादि गुणों की सृष्टि करती है, उस समय जीवात्मा उसका आश्रय नहीं होता। अन्य गुणों की रचना बुद्धि ही करती है और उन गुणों को जीव कभी जानता है । बुद्धि गुणों को उत्पन्न करती है और आत्मा केवल देखता है। बुद्धि और आत्मा का यह संबंध अनादि है । ज्ञानशक्ति रहित न जानने वाली इन्द्रियाँ वस्तुओं को प्रकाशित करने के लिये बुद्धि को बीच में करती है। इन्द्रियाँ तो वस्तु को प्रकट करने में दीपक की भाँति केवल सहायक हैं । इस प्रकार ‘आत्मा असंग एवं निर्लेप है’ इस बात को जानकर मनुष्य शोक, हर्ष और द्वेष का परित्याग करके विचरण करे । जैसे मकड़ी जाला बुनती है, उसी प्रकार बुद्धि गुणों की सृष्टि करती है- यह स्वभाव सिद्ध है। अतएव गुणों को जाले के समान और बुद्धि को मकड़ी के समान जानना चाहिये । वे गुण नष्ट होने पर पुन: वापस नहीं आते; क्योंकि फिर उनकी प्रवृति उपलब्ध नहीं होती। एक श्रेणी के विद्वानों का ऐसा ही निश्चय है। दूसरी श्रेणी के लोग उन नष्ट हुए गुणों की पुनरावृति भी मानते हैं । इस प्रकार बुद्धि की चिन्तास्वरूप इस सुदृढ हृदयगन्थ्रि को त्यागकर शोक और संशय से रहित हो सुखपूर्वक रहना चाहिये । जल की गहराई को न जानने वाले मनुष्य जैसे नदी के तल-प्रदेश में जाकर दु:ख का अनुभव करते हैं, उसी प्रकार बुद्धियोग (ज्ञान) – से अनभिज्ञ सभी मनुष्य इस मोहपूर्ण विशाल संसारनदी में पड़कर क्लेश भोगते हैं । जो तैरने की कला जानते हैं, वे तैरकर अगाध जलसे पार हो जाते हैं। उनहें कष्ट नहीं भोगना पड़ता। उसी प्रकार अध्यात्मतत्व के ज्ञाता धीर पुरष अनायास संसार-सागर को पार कर जाते हैं। उनके लिये परम ज्ञान ही जहाज बन जाता है ।
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